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<poem>
7577
हर दिन आती रात है, हर दिन आती भोर।
दिप-दिप आँसू पोंछ ले मत कर गीली कोर।
7678
ऊपर वाले ने लिखे, सब दुख अपने नाम।
उसे पता भाया नहीं, हमें कभी आराम।।
7779
पार किए सागर बड़े, लाँघे रोज़ पहाड़।
हटा सके अब तक कहाँ, काँटों की वह बाड़।
7880
भूल गए हैं हम सभी , कहते जिसे थकान।
मन भी टूटा काँच-सा, इसका भी अनुमान।
7981
तेरे जीवन में खुशी, रहे सदा आबाद ।
दूरी कितनी भी सही, बना रहे संवाद ।
8082
चुम्बन से पलकें सजें,चमके ऊँचा भाल।
अधरों का जो रस मिले, हार मान ले काल।
8183
इन हथेलियों में छुपा, कर्मठता का सार।
रस प्लावित अंतर हुआ, चूम इन्हें हर बार।
8284
खुशबू फूलों की रची ,हर करतल में आज
इन हाथों को चूमकर, मिला प्यार का राज।
8385
अधरों से था लिख दिया,करतल पर जब प्यार।
सरस आज तक प्राण है, पाकर वह उपहार।
8486
चूम चूमकर मैं लिखूँ,इन हाथों में प्रीत।
रेखाएँ दमके सभी पाकरके मनमीत।
8587
फिर से आकरके मिलो, जैसे नीर तरंग।
उर की तृष्णा भी मिटे, भीग उठें सब अंग।
8688
कहाँ लगे तुम ढूँढने, इन हाथों की रेख।
कर्मठ हाथों ने लिखे, चट्टानों पर लेख।
8789
पत्थर तोड़े बिन थके, तब पी पाए नीर।
इसलिए तो जानते,क्या होती है पीर।
8890
आएँ लाखों आँधियाँ, घिर आएँ तूफान।
रुकना सीखा हैं नहीं,इतना लो तुम जान।
8991
सौरभ उमड़े आँगना,पथ में हो उजियार।
आशीषों का छत्र हो,तेरे सिर हर बार।
9092
तेरे सुख में साँझ है,तेरे सुख में भोर।
पीर उठे तेरे हिये दुखते मन के छोर।
9193
पता नहीं किस यक्ष ने, दिया हमें अभिशाप।
तुम्हें पुकारूँ मैं नहीं, मुझको भी न आप।।
9294
रूप तुम्हारा देखके, जड़ चेतन हैरान।
उतर स्वर्ग से आ गई, बनकरके '''उपमान।।'''
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