"बा / ईप्सिता षडंगी / हरेकृष्ण दास" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ईप्सिता षडंगी |अनुवादक=हरेकृष्ण...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 19: | पंक्ति 19: | ||
बा ! | बा ! | ||
+ | संसार जानो तो अपना यह देश, | ||
+ | अगर घर समझो तो यह सारा भारत, | ||
+ | बच्चे हैं तो यह सारे जग वाले, | ||
+ | शान्ति के शृंगार से झिलमिल | ||
+ | ओ ! कस्तूरबा ! | ||
+ | क्या महात्मा ने अपनाया था तुमसे ही | ||
+ | अहिंसा का मंत्र ! | ||
− | '''ओड़िआ से अनुवाद :हरेकृष्ण दास''' | + | तुम्हारा लिखा हुआ हर एक लफ्ज़ |
+ | लफ्ज़ ही नहीं , | ||
+ | थे एक-एक अक्षर | ||
+ | खुद से ही अलग हुए । | ||
+ | |||
+ | सीखा नहीं था तुमने पढ़ना लिखना । | ||
+ | मगर अपने जीवन- नाटक में | ||
+ | तु्मने निभाए तरह-तरह के किरदार | ||
+ | जो किसी संलाप की भांति | ||
+ | अनगिनत शून्य और विराम चिन्हों से भरे हुए थे । | ||
+ | |||
+ | क्या तुम्हें मालूम है, बा ! | ||
+ | संघ, आदर्श और आश्रम – | ||
+ | मिट जाते है | ||
+ | उनके प्रवर्तक के मौत से ! | ||
+ | |||
+ | क्या तुम्हें दिखाई देता है | ||
+ | कहर का वह भयानक रूप, | ||
+ | धोखेबाज़ी की वह तमाम नौटंकी, | ||
+ | रामराज्य के आड़ में ? | ||
+ | |||
+ | अनगिनत बच्चों की बा हो मगर | ||
+ | सन्तान सुख से कोसों दूर ! | ||
+ | महात्मा के सूरज के तेज के नीचे | ||
+ | छोटा सा दिया बनकर | ||
+ | बुझती चली गईं दिन-ब-दिन तुम । | ||
+ | |||
+ | अब जगह जगह पर मूर्तियाँ तुम्हारी | ||
+ | |||
+ | जी करता है देखने को तुम्हारी आँखों में झाँककर – | ||
+ | शायद मिल जाए वहीं | ||
+ | ओस में छुपे अफ़सोस के दो बून्द आँसू । | ||
+ | |||
+ | '''ओड़िआ से अनुवाद : हरेकृष्ण दास''' | ||
</poem> | </poem> |
07:18, 20 मई 2024 के समय का अवतरण
{{KKCatKavita}
आँखों से छलकती
प्रशान्ति
मन में
ढेर सारा विद्रोह
पहाड़ से मजबूत
अपने व्यक्तित्व में
समेट लिया कैसे
अपने आप को तुमने
बा !
संसार जानो तो अपना यह देश,
अगर घर समझो तो यह सारा भारत,
बच्चे हैं तो यह सारे जग वाले,
शान्ति के शृंगार से झिलमिल
ओ ! कस्तूरबा !
क्या महात्मा ने अपनाया था तुमसे ही
अहिंसा का मंत्र !
तुम्हारा लिखा हुआ हर एक लफ्ज़
लफ्ज़ ही नहीं ,
थे एक-एक अक्षर
खुद से ही अलग हुए ।
सीखा नहीं था तुमने पढ़ना लिखना ।
मगर अपने जीवन- नाटक में
तु्मने निभाए तरह-तरह के किरदार
जो किसी संलाप की भांति
अनगिनत शून्य और विराम चिन्हों से भरे हुए थे ।
क्या तुम्हें मालूम है, बा !
संघ, आदर्श और आश्रम –
मिट जाते है
उनके प्रवर्तक के मौत से !
क्या तुम्हें दिखाई देता है
कहर का वह भयानक रूप,
धोखेबाज़ी की वह तमाम नौटंकी,
रामराज्य के आड़ में ?
अनगिनत बच्चों की बा हो मगर
सन्तान सुख से कोसों दूर !
महात्मा के सूरज के तेज के नीचे
छोटा सा दिया बनकर
बुझती चली गईं दिन-ब-दिन तुम ।
अब जगह जगह पर मूर्तियाँ तुम्हारी
जी करता है देखने को तुम्हारी आँखों में झाँककर –
शायद मिल जाए वहीं
ओस में छुपे अफ़सोस के दो बून्द आँसू ।
ओड़िआ से अनुवाद : हरेकृष्ण दास