तुम चाहते थे अतीत की गहरी खदानों को
बहानों की मुट्ठी भर रेत से पाटना
यह देखकर जो मुस्काई थी तिर्यक तिर्यक् मुस्कान
कोई और नहीं
मैं ही थी
तुम्हारे अपराध बोध अपराधबोध की झुलसती धूप में
जिसने सौंपा नहीं था अपने आँचल का कोई एक कोना भी
और खड़ी रही थी तटस्थ
वो भी तो मैं ही थी
ओझल होते ही तुम्हारे
अपनी सब तटस्थताओं को भुरभुरा कर भुरभुराकर रेत बनते देख
जो विकल हो डूबी थी खारे पानियों में
तुम मानो न मानो