अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=एकांत श्रीवास्तव |संग्रह= }} <Poem> एक धुंध के पार उभ...) |
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18:17, 28 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण
एक धुंध के पार
उभरता है
भाई का चेहरा
हवा में, अग्नि में, जल में,
धरती में, आकाश में
शामिल होता हुआ भाई
देखता होगा आख़िरी बार मुझे पलटकर
अनंत की चौखट के भीतर जाने से पहले
ओ भाई मेरे
मैं यहीं से करता हूँ विदा
यहीं से हिलाता हूँ हाथ
देखते-देखते
झुलस रहा होगा जंगल का एक हरा टुकड़ा
सत्ताईस शीशम के पेड़
झुलस रहे होंगे
एक धुंध के पार
उभरता है
भाई का चेहरा।