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06:39, 29 दिसम्बर 2008 के समय का अवतरण
लेखन वर्ष: २००३
लहर इक ‘विनय’
टकराया जो पत्थर से टूट गया
जब भी निकला आगे
उसके हाथों से एक हाथ छूट गया
जब भी बैठता है
वो यारों के साथ तन्हा बैठता है
उसकी यारी इक ख़ता निकली
पास जिसके भी गया वो रूठ गया
लहर इक ‘विनय’
टकराया जो पत्थर से टूट गया
नाचीज़ खु़द को खा़स समझ बैठा
‘वो’ अजनबी पेश रहा
जब दिल की बात ज़ुबाँ पर लाया
मरासिम टूट गया…
जब भी निकला आगे
उसके हाथों से एक हाथ छूट गया
ग़म क्या थे?
अफ़सोस किस बात का करता वह
जब जी में आया उसके
खु़द का दोस्त बनके खु़द से रूठ गया
लहर इक ‘विनय’
टकराया जो पत्थर से टूट गया
जब भी निकला आगे
उसके हाथों से एक हाथ छूट गया