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+ | वह क्या झिल पायेगा? | ||
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23:44, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
दो?हाँ, दो
बड़ा सुख है देना!
देने में
अस्ति का भवन नींव तक हिल जाएगा-
पर गिरेगा नहीं,
और फिर बोध यह लायेगा
कि देना नहीं है नि:स्व होना
और वह बोध,
तुम्हें स्वतंत्रतर बनायेगा।
लो? हाँ लो!
सौभाग्य है पाना,
उसकी आँधी से रोम-रोम
एक नई सिहरन से भर जायेगा।
पाने में जीना भी कुछ खोना,
यों नि:स्व होना तो नहीं,
पर है कहीं ऊना हो जाना,
पाना अस्मिता का टूट जाना,
वह उन्मोचन-यह सोच लो,
वह क्या झिल पायेगा?