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"ढलान पर आदमी (कविता) / तुलसी रमण" के अवतरणों में अंतर

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पहाड़ के जिस्म का  
 
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तराशता आदमी  
 
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बना डालता है  
 
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    एक सीढ़ी  
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पहाड़ के जिस्म से  
 
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एक बाल  
 
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टुकड़ों-टुकड़ों में चीर-काट  
 
टुकड़ों-टुकड़ों में चीर-काट  
 
नक्काशी कर जोड़ता है  
 
नक्काशी कर जोड़ता है  
      एक सीढ़ी  
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            लक्कड़ की  
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पहाड़ की कठोर देह पर  
 
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खरोंचे मार-मार  
 
खरोंचे मार-मार  
 
बिछा देती है आदमी  
 
बिछा देती है आदमी  
        एक सीढ़ी  
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              खेतों की  
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पत्थर, लक्कड़ और  
 
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मिट्टी का अंतरंग पारदर्शी है  
 
मिट्टी का अंतरंग पारदर्शी है  
 
पहाड़ की ढलान पर  
 
पहाड़ की ढलान पर  
                आदमी  
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इस आदमी ने सीख रखी है  
 
इस आदमी ने सीख रखी है  
 
सयाले की बर्फ़ में  
 
सयाले की बर्फ़ में  
 
दबी आग  
 
दबी आग  
 
और चैत में कूजे की  
 
और चैत में कूजे की  
                खुश्बू  
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समा गया है भीतर  
 
समा गया है भीतर  
 
आषाढ़ की दोपहरी में  
 
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ढलान पर रंभाती  
 
ढलान पर रंभाती  
            गाय का गऊपन  
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और धुंध में दबे  
 
और धुंध में दबे  
 
सावनी पहाड़ के  
 
सावनी पहाड़ के  
 
सीने से उतरते  
 
सीने से उतरते  
            निर्झर का संगीत  
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:::निर्झर का संगीत  
 
बूढ़े पहाड़ के  
 
बूढ़े पहाड़ के  
 
कंधों पर खेलता  
 
कंधों पर खेलता  

15:16, 30 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

पहाड़ के जिस्म का
एक-एक टुकड़ा
पूरे-पूरे दिन में
तराशता आदमी
बना डालता है
एक सीढ़ी
पत्थर की
पहाड़ के जिस्म से
एक बाल
पेड़ देवदार का उतारकर
टुकड़ों-टुकड़ों में चीर-काट
नक्काशी कर जोड़ता है
एक सीढ़ी
लक्कड़ की
पहाड़ की कठोर देह पर
खरोंचे मार-मार
बिछा देती है आदमी
एक सीढ़ी
खेतों की
पत्थर, लक्कड़ और
मिट्टी का अंतरंग पारदर्शी है
पहाड़ की ढलान पर
आदमी
इस आदमी ने सीख रखी है
सयाले की बर्फ़ में
दबी आग
और चैत में कूजे की
खुश्बू
समा गया है भीतर
आषाढ़ की दोपहरी में
ढलान पर रंभाती
गाय का गऊपन
और धुंध में दबे
सावनी पहाड़ के
सीने से उतरते
निर्झर का संगीत
बूढ़े पहाड़ के
कंधों पर खेलता
चढ़ता फिसलता
बस पूरा हो जाता है
ढलान पर आदमी