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"विषकन्या / सरोज परमार" के अवतरणों में अंतर

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कुछ हो जाने का अहसास
 
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किसी सर्प दंश से कम नहीं होता
 
किसी सर्प दंश से कम नहीं होता
मैं विष कन्या बनती जारही हूँ ।
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मैं विष कन्या बनती जा रही हूँ ।
 
यह पीली-नीली धारियों का वेश
 
यह पीली-नीली धारियों का वेश
 
मुझे पसन्द नहीं
 
मुझे पसन्द नहीं
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घुल जाती है।
 
घुल जाती है।
 
काश! मेरा आज
 
काश! मेरा आज
गुलमोहर का गुछ्छा बन जाए।
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गुलमोहर का गुच्छा बन जाए।
 
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20:38, 3 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण


ज़िन्दगी के पाँवों में
शब्द चिपकने को मचलते हैं
शब्दों का क्या करूँ
अर्थ ही नहीं मिलते।
कुछ हो जाने का अहसास
किसी सर्प दंश से कम नहीं होता
मैं विष कन्या बनती जा रही हूँ ।
यह पीली-नीली धारियों का वेश
मुझे पसन्द नहीं
मुझे ज़िन्दा रहना है
इसलिए मेरी पसन्दीदगी का सवाल
ही नहीं।
इस फागुन को सूँघ
मेरी केंचुल तो उतरती है
पर विष नहीं उतरता।
कल क्या था? कल क्या होगा?
प्रश्न-चिन्हों से घिरी सोच के मुँह में
आज के नाम पर कड़ुवाहट
घुल जाती है।
काश! मेरा आज
गुलमोहर का गुच्छा बन जाए।