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"ख़ाली जगह / अमृता प्रीतम" के अवतरणों में अंतर
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तन के मेंह में भीगती रही, | तन के मेंह में भीगती रही, | ||
वह कितनी ही देर | वह कितनी ही देर | ||
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फिर बरसों के मोह को | फिर बरसों के मोह को |
03:02, 8 मार्च 2010 के समय का अवतरण
सिर्फ़ दो रजवाड़े थे –
एक ने मुझे और उसे
बेदखल किया था
और दूसरे को
हम दोनों ने त्याग दिया था।
नग्न आकाश के नीचे –
मैं कितनी ही देर –
तन के मेंह में भीगती रही,
वह कितनी ही देर
तन के मेंह में गलता रहा।
फिर बरसों के मोह को
एक ज़हर की तरह पीकर
उसने काँपते हाथों से
मेरा हाथ पकड़ा!
चल! क्षणों के सिर पर
एक छत डालें
वह देख! परे – सामने उधर
सच और झूठ के बीच –
कुछ ख़ाली जगह है...