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यहाँ तक कि गोश्त कहने पर उन्हें आती है उबकाई | यहाँ तक कि गोश्त कहने पर उन्हें आती है उबकाई | ||
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कटते हुए देखकर भी | कटते हुए देखकर भी | ||
वे गश नहीं खाते | वे गश नहीं खाते | ||
− | शायद इंसानों के मरने का समाचार भी उन्हें | + | शायद इंसानों के मरने का समाचार भी उन्हें वक़्त पर खाने से मना नहीं करता |
हमारे गाँव में भी अब बोली जाने लगी है हिंदी | हमारे गाँव में भी अब बोली जाने लगी है हिंदी | ||
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तुम्हारी हिंदी में सरहद की लकीरें मिट रही हैं | तुम्हारी हिंदी में सरहद की लकीरें मिट रही हैं | ||
ये ठीक नहीं है | ये ठीक नहीं है | ||
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पिता खाने की थाली फेंक देते हैं | पिता खाने की थाली फेंक देते हैं | ||
बहनें आना छोड़ देती हैं | बहनें आना छोड़ देती हैं | ||
पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं | पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं | ||
− | मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता | + | मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूँ गाँव |
एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं | एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं | ||
वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं | वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं | ||
− | दोस्तों की किनाराक़शी | + | दोस्तों की किनाराक़शी मंज़ूर है |
− | + | मंज़ूर है हमारे अपने छोड़ जाएँ हमें | |
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मुझे तो अब गुजराती भी हिंदी-सी लगने लगी है | मुझे तो अब गुजराती भी हिंदी-सी लगने लगी है | ||
‘वैष्णव जन तो तेणे कहिए जे | ‘वैष्णव जन तो तेणे कहिए जे | ||
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हम जितना मुलायम रखेंगे अपनी जबान | हम जितना मुलायम रखेंगे अपनी जबान | ||
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कितना मर्मांतक है दुनिया भर के युद्धों का इतिहास! | कितना मर्मांतक है दुनिया भर के युद्धों का इतिहास! | ||
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15:13, 8 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
हमारे दोस्त कुछ ऐसे हैं
जो दरिया कहने पर समझते हैं कि हम किसी कहानी की बात कर रहे हैं
उन्हें यक़ीन नहीं होता कि समंदर को
समंदर के अलावा भी कुछ कहा जा सकता है
सब्जी को शोरबा कहने पर समझते हैं
ये मैं क्या कह रहा हूँ
ऐसा तो मुसलमान कहते हैं
यहाँ तक कि गोश्त कहने पर उन्हें आती है उबकाई
जबकि हज़ारों-हज़ार बकरों-भैंसों को
कटते हुए देखकर भी
वे गश नहीं खाते
शायद इंसानों के मरने का समाचार भी उन्हें वक़्त पर खाने से मना नहीं करता
हमारे गाँव में भी अब बोली जाने लगी है हिंदी
पर उस हिंदी में कुछ दिल्ली है, कुछ कलकत्ता
लखनऊ अभी दूर है
शहरों में होती हैं भाषाएँ तो भाषा में भी होते हैं शहर
दोस्त कहते हैं
तुम्हारी हिंदी में सरहद की लकीरें मिट रही हैं
ये ठीक नहीं है
पिता खाने की थाली फेंक देते हैं
बहनें आना छोड़ देती हैं
पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं
मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूँ गाँव
एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं
वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं
दोस्तों की किनाराक़शी मंज़ूर है
मंज़ूर है हमारे अपने छोड़ जाएँ हमें
मुझे तो अब गुजराती भी हिंदी-सी लगने लगी है
‘वैष्णव जन तो तेणे कहिए जे
पीर परायी जाणी रे’
हम जितना मुलायम रखेंगे अपनी जबान
हमारे पास उतने मुल्क़ बिना किसी सरहद के होंगे
कितना मर्मांतक है दुनिया भर के युद्धों का इतिहास!