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"इक्कीसवीं शताब्दी / येव्गेनी येव्तुशेंको" के अवतरणों में अंतर

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20:43, 18 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण

उद्धरणों में बँटा हुआ नहीं
बल्कि हवा में ऊपर उठते झूले में बैठे
बालकों के झुण्ड की तरह
मैं पहुँचूँगा इक्कीसवीं शताब्दी में
वहाँ भी वैसे ही होगी मेरी ज़रूरत
जैसेकि थी बीसवीं शताब्दी में

बेल्ट की मार के बिना ही
मैंने पाली-पोसी है जो शताब्दी
अपने कपड़े उतार कर
उछालूँगा उसे आकाश में
बहती नाक वाले, आशावादी उस बच्चे की तरह
जिसकी सूरत मुझसे बेहद मिलती-जुलती है

मै घुस जाऊँगा इक्कीसवीं शताब्दी में
पर खेद है कि मैं तब बच्चा नहीं रहूंगा
लेकिन उस बूढ़े मूर्ख-सा भी नहीं होऊँगा
जो नाराज़ सारी दुनिया से बड़बड़ाता रहता है हमेशा

इक्कीसवीं शताब्दी में धँस जाऊँगा मैं
खरोंचे खाता हुआ
किसी फुटबाल की तरह
जहाँ पेले जैसे खिलाड़ी होंगे चारों तरफ़
वहाँ कोई पासपोर्ट नहीं होगा
कोई पार्टी नहीं होगी
सरकार जैसी कोई व्यवस्थ भी नहीं होगी धरती पर

मैं प्रवेश कर जाऊँगा इक्कीसवीं शताब्दी मे
जैसे कि प्रारम्भिक कैशोर्य-काल में हों
साँसों के गर्म पुस्तकालय के भीतर
बैठे हैं किताबों की अलमारियों में,
लोगों के होठों पर

बीसवीं शताब्दी थी हत्यारी और शैतान
लेकिन जानती थी वह क़िताबों का महत्त्व
इक्कीसवीं शताब्दी, क्या तू लोभी है
जानती है सिर्फ़ नोटों की गिनती?
कहीं ऎसा तो नहीं
कि तू स्वयं खा जाए ख़ुद को
तू- आदमखोर, प्रेमविहीन, विरागी
उबाऊ, घातक सुख तू
सभी प्राणघातक दुर्भाग्यों के बदले?
कहीं तू सिर्फ़ मतलबी, ख़ुदगर्ज़, नक्काल तो नहीं
जो हमारी बात सुने सिर्फ़ एक-चौथाई कान से

मैं तुझे
बहरी नहीं बनने दूंगा
मैं आऊँगा तेरे पास
वैसे ही
जैसे पहुँचा था उस जगह पर
जहाँ मैंने तोड़ी थीं चट्टानें

और
नए समय की कविता में
बहुत-सी आवाज़ें गूँजेंगी जब
मैं कमर तक उनमें घुस जाऊँगा
मानो घुसा हुआ हूँ खेत में खड़ी फ़सल में
और तब
वे आवाज़े
झुककर करेंगी मेरा अभिवादन


मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय