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कल को उसे खड़ी पाती हूं ...
 
कल को उसे खड़ी पाती हूं ...
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23:07, 5 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

जब कोई बात
मेरी समझ में आती है
पर जिसे समझाना
मुश्किल होता है
तब शब्दों को
उसके पारंपरिक अर्थों से अलग करते हुए
एक जुदा अंदाज में
सामने रखती हूं मैं
और देखती हूं कि शब्द
किस तरह सक्रिय हो रहे हैं
और मैं खुद को गौण कर देती हूं
फिर फटी आंखों देखती हूं
कि क्घ्या रच डाला है मैंने
और वह कैसे खड़ी है
रूबरू मेरे
मुझसे ही आंखें मिलाती
फिर मैं उसे छोड़ देती हूं
समय की धुंध में खड़ी होने को
और
कल को उसे खड़ी पाती हूं ...