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"रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 6" के अवतरणों में अंतर

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'वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्ग उठाता है,
 
मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता है।
 
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सीमित जो रख सके खड्ग को, पास उसी को आने दो,
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विप्रजाति के सिवा किसी को मत तलवार उठाने दो।
 
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सुनकर आशीर्वाद देव का, धन्य-धन्य हो जाता हूँ।
 
सुनकर आशीर्वाद देव का, धन्य-धन्य हो जाता हूँ।
 
 
'जियो, जियो अय वत्स! तीर तुमने कैसा यह मारा है,
 
'जियो, जियो अय वत्स! तीर तुमने कैसा यह मारा है,
 
 
दहक उठा वन उधर, इधर फूटी निर्झर की धारा है।
 
दहक उठा वन उधर, इधर फूटी निर्झर की धारा है।
 
 
 
  
 
'मैं शंकित था, ब्राह्मा वीरता मेरे साथ मरेगी क्या,
 
'मैं शंकित था, ब्राह्मा वीरता मेरे साथ मरेगी क्या,
 
 
परशुराम की याद विप्र की जाति न जुगा धरेगी क्या?
 
परशुराम की याद विप्र की जाति न जुगा धरेगी क्या?
 
 
पाकर तुम्हें किन्तु, इस वन में, मेरा हृदय हुआ शीतल,
 
पाकर तुम्हें किन्तु, इस वन में, मेरा हृदय हुआ शीतल,
 
 
तुम अवश्य ढोओगे उसको मुझमें है जो तेज, अनल।
 
तुम अवश्य ढोओगे उसको मुझमें है जो तेज, अनल।
 
 
 
  
 
'जियो, जियो ब्राह्मणकुमार! तुम अक्षय कीर्ति कमाओगे,
 
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एक बार तुम भी धरती को निःक्षत्रिय कर जाओगे।
 
एक बार तुम भी धरती को निःक्षत्रिय कर जाओगे।
 
 
निश्चय, तुम ब्राह्मणकुमार हो, कवच और कुण्डल-धारी,
 
निश्चय, तुम ब्राह्मणकुमार हो, कवच और कुण्डल-धारी,
 
 
तप कर सकते और पिता-माता किसके इतना भारी?
 
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'किन्तु हाय! 'ब्राह्मणकुमार' सुन प्रण काँपने लगते हैं,
 
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मन उठता धिक्कार, हृदय में भाव ग्लानि के जगते हैं।
 
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गुरु का प्रेम किसी को भी क्या ऐसे कभी खला होगा?
 
गुरु का प्रेम किसी को भी क्या ऐसे कभी खला होगा?
 
 
और शिष्य ने कभी किसी गुरु को इस तरह छला होगा?
 
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'पर मेरा क्या दोष? हाय! मैं और दूसरा क्या करता,
 
'पर मेरा क्या दोष? हाय! मैं और दूसरा क्या करता,
 
 
पी सारा अपमान, द्रोण के मैं कैसे पैरों पड़ता।
 
पी सारा अपमान, द्रोण के मैं कैसे पैरों पड़ता।
 
 
और पाँव पड़ने से भी क्या गूढ़ ज्ञान सिखलाते वे,
 
और पाँव पड़ने से भी क्या गूढ़ ज्ञान सिखलाते वे,
 
 
एकलव्य-सा नहीं अँगूठा क्या मेरा कटवाते वे?
 
एकलव्य-सा नहीं अँगूठा क्या मेरा कटवाते वे?
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22:35, 29 अगस्त 2020 के समय का अवतरण

'वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्ग उठाता है,
मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता है।
सीमित जो रख सके खड्ग को, पास उसी को आने दो,
विप्रजाति के सिवा किसी को मत तलवार उठाने दो।

'जब-जब मैं शर-चाप उठा कर करतब कुछ दिखलाता हूँ,
सुनकर आशीर्वाद देव का, धन्य-धन्य हो जाता हूँ।
'जियो, जियो अय वत्स! तीर तुमने कैसा यह मारा है,
दहक उठा वन उधर, इधर फूटी निर्झर की धारा है।

'मैं शंकित था, ब्राह्मा वीरता मेरे साथ मरेगी क्या,
परशुराम की याद विप्र की जाति न जुगा धरेगी क्या?
पाकर तुम्हें किन्तु, इस वन में, मेरा हृदय हुआ शीतल,
तुम अवश्य ढोओगे उसको मुझमें है जो तेज, अनल।

'जियो, जियो ब्राह्मणकुमार! तुम अक्षय कीर्ति कमाओगे,
एक बार तुम भी धरती को निःक्षत्रिय कर जाओगे।
निश्चय, तुम ब्राह्मणकुमार हो, कवच और कुण्डल-धारी,
तप कर सकते और पिता-माता किसके इतना भारी?

'किन्तु हाय! 'ब्राह्मणकुमार' सुन प्रण काँपने लगते हैं,
मन उठता धिक्कार, हृदय में भाव ग्लानि के जगते हैं।
गुरु का प्रेम किसी को भी क्या ऐसे कभी खला होगा?
और शिष्य ने कभी किसी गुरु को इस तरह छला होगा?

'पर मेरा क्या दोष? हाय! मैं और दूसरा क्या करता,
पी सारा अपमान, द्रोण के मैं कैसे पैरों पड़ता।
और पाँव पड़ने से भी क्या गूढ़ ज्ञान सिखलाते वे,
एकलव्य-सा नहीं अँगूठा क्या मेरा कटवाते वे?