"ताशक़न्द की शाम / अली सरदार जाफ़री" के अवतरणों में अंतर
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मनाओ जश्ने-महब्बत कि ख़ूँ की बू न रही | मनाओ जश्ने-महब्बत कि ख़ूँ की बू न रही | ||
बरस के खुल गये बारूद के सियह बादल | बरस के खुल गये बारूद के सियह बादल |
00:10, 6 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
मनाओ जश्ने-महब्बत कि ख़ूँ की बू न रही
बरस के खुल गये बारूद के सियह बादल
बुझी-बुझी-सी है जंगों की आख़िरी बिजली
महक रही है गुलाबों से ताशक़न्द की शाम
जगाओ गेसूए-जानाँ की अम्बरीं रातें
जलाओ साअ़दे-सीमीं की शमे-काफ़ूरी
तवील बोसों के गुलरंग जाम छलकाओ
यह सुर्ख़ जाम है ख़ूबाने-ताशक़न्द के नाम
यह सब्ज़ जाम है लाहौर के हसीनों का
सफ़ेद जाम है दिल्ली के दिलबरों के लिए
घुला है जिसमें महब्बत के आफ़ताब का रंग
खिली हुई है उफ़ुक़ पर धनक तबस्सुम की
नसीमे-शौक़ चली है जाँफ़िज़ा तकल्लुम<ref>वार्ता</ref> की
लबों की शो’लाफ़िशानी है शबनम-अफ़्शानी
इसमें सुब्हे-तमन्ना नहाके निखरेगी
किसी की ज़ुल्फ़ न अब शामे-ग़म में बिखरेगी
जवान ख़ौफ़ की वादी से अब न गुज़रेंगे
जियाले मौत के साहिल पे अब न उतरेंगे
भरी न जाएगी अब ख़ाको-ख़ूँ से माँग कभी
मिलेगी माँ को न मर्गे-पिसर<ref>बेटे की मृत्यु</ref> की ख़ुशख़बरी
खिलेंगे फूल बहुत सरहदे-तमन्ना पर
ख़बर न होगी यह नर्गिस है किसकी आँखों की
यह गुल है किसकी जबीं किसका लब है यह लालः
यह शाख़ किसके जवाँ बाज़ुओं की अँगडा़ई
बस इतना होगा यह धरती है, शहसवारों की
जहाने-हुस्न के गुमनाम ताजदारों की
यह सरज़मीं है महब्बत के ख़्वास्तगारों<ref>इच्छुक, चाहनेवाले</ref> की
जो गुल पे मरते थे शबनम से प्यार करते थे
ख़ुदा करे कि यह शबनम यूँ ही बरसती रहे
ज़मीं हमेशा लहू के लिए तरसती रहे