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[[Category:ग़ज़ल]]
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जिनके अंदर चिराग़ जलते हैं,
 
घर से बाहर वही निकलते हैं।
 बर्फ़ गिरी गिरती है जिन इलाकों में, 
धूप के कारोबार चलते हैं।
 
दिन पहाड़ों की तरह कटते हैं,
 
तब कहीं रास्ते पिघलते हैं।
 ऐसी कोई काई है अब मकानों पर, धूप के पांव पाँव भी फिसलते हैं। 
खुदरसी उम्र भर भटकती है,
 
लोग इतने पते बदलते हैं।
 
हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के,
 
मूड आता है तब निकलते हैं।
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