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"बुनकर-3 / प्रेमचन्द गांधी" के अवतरणों में अंतर

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माँगता हुआ सूरज है
 
माँगता हुआ सूरज है
 
बुनकरों का यह गाँव   
 
बुनकरों का यह गाँव   
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|रचनाकार=प्रेमचन्द गांधी
 
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<Poem>
 
 
अपने जन्मदिन पर
 
 
 
एक
 
 
न जाने कितने बीहड़ों को पार कर आया हूँ मैं
 
 
जिसे बचपन में मास्टरजी
 
 
कप-प्लेट धोने से ज़्यादा योग्य नहीं समझते थे
 
 
 
कितने ही जन्मदिन आये-गये
 
 
ख़याल ही नहीं रहा
 
 
कुछ तो सिर्फ़ मजूरी करते हुए काटे
 
 
 
आज भी याद नहीं रहता
 
 
घर वाले ही याद दिलाते हैं अक़सर
 
 
या कुछ सबसे अच्छे दोस्त
 
 
 
इस जन्म-तारीख़ में कुछ भी तो नहीं उल्लेखनीय
 
 
सिवा इसके कि इसी दिन जन्मी थीं महादेवी
 
 
और मैं भी करता हूं कविताई
 
 
 
दो
 
 
बढ़ती जा रही है बालों मे सफे़दी
 
 
कम होते जा रहे हैं आकर्षण
 
 
स्मृति से लुप्त होते जा रहे हैं
 
 
सहपाठियों के नाम और चेहरे
 
 
 
संघर्ष भरे दिन
 
 
आज भी दहला देते हैं दिल
 
 
शायद अब न लड़ सकूँ पहले की तरह
 
 
 
तीन
 
 
आखि़री नहीं है यह जन्म-दिन
 
 
और लड़ाई के लिए है पूरा मैदान
 
 
 
आज के दिन मैं लौटाना चाहता हूँ
 
 
एक उदास बच्चे की हँसी
 
 
 
आज के दिन मैं
 
 
घूमना चाहता हूँ पूरी पृथ्वी पर
 
 
एक निश्शंक मनुष्य की तरह
 
 
 
नियाग्रा फाल्स के कनाडाई छोर से
 
 
मैं आवाज़ देना चाहता हूँ अमरीका को कि
 
 
सृष्टि के इस अप्रतिम सौन्दर्य को निहारो
 
 
हथियारों की राजनीति से बेहतर है
 
 
यहाँ की लहरों में भीगना
 
 
 
आज के दिन मैं धरती को
 
 
बाँहों में भर लेना चाहता हूँ प्रेमिका की तरह 
 
 
 
 
रथयात्रा 
 
 
 
उसके हाथ में
 
 
कोई हथियार नहीं था
 
 
उसका चेहरा बड़ा भव्य था
 
 
वह खुली जीप में आया था
 
 
 
उसके आगे पीछे
 
 
लम्बा चौड़ा काफ़िला था वाहनों का
 
 
माथे पर पट्टियाँ बांधे
 
 
जोश में नारे लगाती
 
 
अनुयायियों की
 
 
उन्मादी भीड़ थी
 
 
उसके चारों ओर
 
 
 
वह रौंदता जा रहा था
 
 
मेहनतकशों की बनायी
 
 
उम्मीदों की सड़क
 
 
 
उसके आने से पहले ही
 
 
लोग दुबक चुके थे घरों में
 
 
किसी अनिष्ट की आशंका से
 
 
बंद हो गए थे बाज़ार
 
 
फैला हुआ था सन्नाटा चारों ओर
 
 
कोई नहीं देख रहा था
 
 
उसकी सवारी
 
 
अनुयायियों की उन्मादी भीड़ के सिवा
 
 
 
हमारा गाँव
 
 
 
पहाड़ की तलहटी में बसा था गाँव
 
 
हम नहीं बस सकते थे गाँव के बीच
 
 
इसलिए हमें वहाँ बसाया गया
 
 
जहाँ गाँव को सबसे ज़्यादा ख़तरा था
 
 
 
मसलन वहीं से जाता था गाँव और पहाड़ का पानी
 
 
नीचे तालाब में
 
 
वहीं से था रास्ता
 
 
जंगली जानवरों के आने-जाने का
 
 
और दरअसल हमारे घरों के बाद कोई घर नहीं था
 
 
बारिश में पहाड़ का पानी
 
 
हमारे घरों पर कहर बरपाता
 
 
गाँव का पानी हमारे रास्ते रोक देता
 
 
और तालाब तो ख़तरे की घंटी था ही
 
 
हर बारिश हमें कुछ और विपन्न कर जाती
 
 
हर साल हमारे कुछ बच्चे और मवेशी
 
 
जंगली जानवर उठा ले जाते
 
 
और बंदरों ने तो हम पर कभी दया नहीं की
 
 
 
हम क्षत्रिय नहीं थे लेकिन
 
 
पीढ़ियों तक लड़ते रहे गाँव की ख़ातिर
 
 
उस गाँव की ख़ातिर
 
 
जहाँ हमारे लिए कुँए के पास जाना भी वर्जित था
 
 
मंदिर को भी हम फ़ासले से ही धोक पाते थे
 
 
वह भी दरवाज़ा बंद होने के बाद
 
 
 
हमारा और गाँव के मवेशियों का एक ही जल-स्रोत था
 
 
गाँव के मवेशी भी हम नहीं छू सकते थे
 
 
उनके मरने से पहले
 
 
 
यूँ गाँव-भर के खेतों में
 
 
उम्र भर खटती रहीं हमारी पीढ़ियाँ
 
 
यूँ खटते-खटते ही आ गई आज़ादी
 
 
हमारे बुज़ुर्गों को आज तक पता नहीं आज़ादी का 
 
 
 
आत्म-निर्वासन
 
 
 
इस बार मैं जाना चाहता हूँ
 
 
एक लम्बे निर्वासन में
 
 
मैं डूब जाना चाहता हूँ
 
 
यथार्थ के गहन अंधकार में
 
 
जहाँ चीज़ें इस कदर बदशक्ल हो गयी हैं
 
 
कि मैं अपना चेहरा भी ठीक से नहीं पहचान पा रहा
 
 
 
मेरी इच्छा है
 
 
इस विभ्रम के तल में जाकर
 
 
ख़ुद को भूल जाने की
 
 
जब काल के तीनों खण्ड
 
 
एकमेक हो गए हैं
 
 
मैं उस विस्मृति में जीना चाहता हूँ
 
 
जहाँ भूत, भविष्य और वर्तमान से
 
 
मैं अलग-अलग सवाल कर सकूँ
 
 
 
दरअसल मेरे सामने
 
 
मिट्टी का एक दीपक है
 
 
सिंधु घाटी सभ्यता का
 
 
मैं इस अंधियारे समय में
 
 
इस दीपक के साथ
 
 
आई टी की दुनिया में
 
 
दाख़िल होना चाहता हूँ
 
 
 
भविष्य के स्वयम्भू प्रहरी
 
 
मेरे रास्ते में अवरोध बनकर खड़े हैं
 
 
 
उनके हाथों में
 
 
शिव के त्रिशूल से लेकर
 
 
गोडसे की बंदूक तक सब हथियार हैं
 
 
मैं इन्हें ठेंगा दिखाते हुए
 
 
गहन अंधकार से
 
 
प्रकाशमान दीपक आगे ले जाना चाहता हूँ
 
 
 
स्थिति बड़ी विकट है
 
 
सरकार ने निर्वासन पर
 
 
प्रतिबंध लगा दिया है
 
 
स्मृतियों में जीना साम्प्रदायिक होना है
 
 
और विस्मृति में जीना धर्म विरूद्ध
 
 
दीपक जलाना आधुनिकता के खि़लाफ़ है
 
 
और अंधेरे को अंधेरा कहना बेहद ख़तरनाक
 
 
 
आप मौन और वाणी से लेकर
 
 
किसी भी चीज़ का
 
 
हथियार की तरह इस्तेमाल नहीं कर सकते 
 
 
 
किसी भी प्रकार का प्रतिरोध
 
 
अन्ततः एक राष्ट्रद्रोह है
 
 
अगर मुझे अपने पड़ौसी की तरह
 
 
गृहमंत्री या प्रधानमंत्री की शक्ल पंसद नहीं
 
 
तो इसे भी एक साजिश ही माना जाएगा
 
 
 
इसलिए निर्वासन की मेरी इच्छा
 
 
एक कमज़ोर बूढ़े नेतृत्व का प्रतिकार है 
 
 
 
मूर्तिकार
 
 
 
एक
 
 
 
ध्यान से सुनो
 
 
छैनी हथौड़े का यह संगीत
 
 
 
खो जाओ
 
 
मेहनत और कारीगरी की इस सिम्फनी में
 
 
एक आदमी
 
 
तराश रहा है विधाता को 
 
 
 
दो
 
 
 
अभी तो वह बच्चे की तरह
 
 
चुहल कर रहा है ईश्वर के साथ
 
 
 
उसके पैरों में है ईश्वर
 
 
हाथों में छैनी हथौड़ा लिये
 
 
वह गढ़ रहा है
 
 
एक-एक अंग
 
 
वस्त्र-आभूषण
 
 
उसके हाथों में क़ैद है ईश्वर की मुस्कान
 
 
वह चाहे तो बना दे ईश्वर की रोनी सूरत
 
 
 
ईश्वर उसका क्या बिगाड़ लेगा
 
 
वह तो उसका विधाता है पृथ्वी पर
 
 
 
तीन
 
 
 
अनगिनत शीश झुकेंगे
 
 
इस मूरत के आगे श्रद्धा में
 
 
 
नहीं जानेगा कोई
 
 
इसके विधाता का नाम
 
 
 
फिर भी नतमस्तक होंगे
 
 
जैसे धरती पर मत्था टेककर
 
 
हाथ जोड़ रहे हों सूर्य के 
 
 
 
 
शहीदों के नाम माफ़ीनामा
 
 
 
शहीदो
 
 
मैं पूरे देश की ओर से
 
 
आपसे क्षमा चाहता हूँ
 
 
 
हमें माफ़ करना
 
 
हमारे भीतर आप जैसा
 
 
देश प्रेम का जज़्बा नहीं रहा
 
 
हमारे लिए देश
 
 
रगों में दौड़ने वाला लहू नहीं रहा
 
 
अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से आबद्ध
 
 
भूमि का एक टुकड़ा मात्र है देश
 
 
 
हमें माफ़ करना
 
 
हम भूल गये हैं
 
 
जन-गण-मन और
 
 
वंदे मातरम् का फ़र्क
 
 
नहीं जानते हम
 
 
किसने लिखा था कौनसा गीत
 
 
किसके लिए
 
 
 
हमें माफ़ करना
 
 
हमारे स्कूल-घर-दफ़्तरों में
 
 
आपकी तस्वीरों की जगह
 
 
सुंदर द्दश्यावलियों
 
 
आधुनिक चित्रों और
 
 
फ़िल्मी चरित्रों ने ले ली है
 
 
 
हमें माफ़ करना
 
 
‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ गाते हुए
 
 
भले ही रुँध जाता होगा
 
 
लता मंगेशकर का गला
 
 
हमारी आँखों में तो कम्पन भी नहीं होता
 
 
 
हमें माफ़ करना
 
 
हम देशभक्ति के तराने
 
 
साल में सिर्फ़ दो बार सुनते हैं
 
 
 
हम पाँव पकड़कर क्षमा चाहते हैं
 
 
आपने जिन्हें विदेशी आक्रांता कहकर
 
 
भगा दिया था सात समुंदरों पार
 
 
उन्हीं के आगमन पर हमने
 
 
समुद्र से संसद तक
 
 
बिछा दिये हैं पलक-पाँवड़े
 
 
 
हमें माफ़ करना
 
 
हम परजीवी हो गये हैं
 
 
अपने पैरों पर खड़े रहने का
 
 
हमारे भीतर माद्दा नहीं रहा
 
 
हमारे घुटनों ने चूम ली है ज़मीन
 
 
और हाथ उठ गये हैं निराशा में आसमान की ओर
 
 
 
हमें माफ़ करना
 
 
आने वाली पीढ़ियों को
 
 
हम नहीं बता पायेंगे
 
 
बिस्मिल, भगतसिंह, अशफ़ाक़ उल्ला का नाम
 
 
 
हमें माफ़ करना
 
 
हमारे इरादे नेक नहीं हैं
 
 
 
हमें माफ़ करना
 
 
हम नहीं जानते
 
 
हम क्या कर रहे हैं
 
 
हमें माफ़ करना
 
 
हम यह देश
 
 
नहीं सँभाल पा रहे हैं
 
 
 
बहुत कुछ बचा रहेगा
 
 
 
वैज्ञानिक कह चुके हैं
 
 
नष्ट हो जायेगी एक दिन पृथ्वी
 
 
जैसे नष्ट हुआ था मंगल
 
 
 
हम नहीं बचेंगे इस रूप में
 
 
नष्ट होती हुई पृथ्वी को देखने
 
 
फिर भी बचा रहेगा बहुत कुछ
 
 
इस नष्ट और उजाड़ पृथ्वी के आँगन में
 
 
 
मसलन बचा रहेगा प्रेम का वह तत्व
 
 
जो हमने इस पृथ्वी पर पैदा किया
 
 
जहाँ कहीं पड़े थे
 
 
हमारे दो जोड़ी-पैरों के निशान
 
 
वहाँ की मिट्टी में हमारा अहसास बचा रहेगा
 
 
जिस पेड़ की छाँव में जिस घास पर जिस पत्थर पर
 
 
हम बैठे थे कभी साथ-साथ
 
 
वहाँ हमारे होने की ख़ुशबू बची रहेगी
 
 
 
साथ बिताये अहसास में हमने
 
 
जो शब्द उच्चारे थे साथ-साथ
 
 
उनकी ध्वनियाँ बची रहेंगी
 
 
उन स्पर्शों की गरमाहट बची रहेगी
 
 
जो हमने कभी किये ही नहीं
 
 
उन चुम्बनों की मिठास बची रहेगी
 
 
जो हमने कभी लिये ही नहीं
 
 
आँखों के परदे पर
 
 
एक दूसरे की तस्वीर देखने का सुख बचा रहेगा
 
 
वे तस्वीरें बची रहेंगी
 
 
जो हमारी आँखों ने उतारीं
 
 
वह चमक बची रहेगी
 
 
जो आँखों में व्याप्त रहती थी
 
 
 
इस पृथ्वी ने जितने झेले कष्ट
 
 
उन कष्टों का होना बचा रहेगा
 
 
करोड़ों आँखों के अविरल बहे आँसुओं की
 
 
आर्द्रता बची रहेगी
 
 
स्त्रियों, बच्चों और तमाम दुखियारों की
 
 
चीखें बची रहेंगी
 
 
उन सपनों की छवियाँ बची रहेंगी
 
 
जिन्हें मनुष्य कभी पूरा नहीं कर पाया
 
 
मनुष्य के प्रयत्नों के पसीने की
 
 
गन्ध बची रहेगी
 
 
 
वैज्ञानिकों से जाकर कह दो
 
 
पृथ्वी के नष्ट होने के बाद भी
 
 
बहुत कुछ बचा रहेगा और
 
 
इसमें इन्सान कुछ नहीं कर सकेगा
 
 
 
बसन्त और उल्काएं
 
 
 
तीन बाई दो की उस पथरीली बेंच पर
 
 
तुमने बैठते ही पूछा था कि
 
 
बसन्त से पहले झड़े हुए पत्‍तों का
 
 
उल्काओं से क्या रिश्ता है
 
 
पसोपेश में पड़ गया था मैं यह सोचकर कि
 
 
उल्काएं कौनसे बसंत के पहले गिरती हैं कि
 
 
पृथ्वी के अलावा सृष्टि में और कहाँ आता है बसन्त
 
 
चंद्रमा से पूछा मैंने तो उसने कहा
 
 
‘मैं तो ख़ुद रोज़-रोज़ झड़ता हूँ
 
 
मेरे यहाँ हर दूसरे पखवाड़े बसन्त आता है
 
 
लेकिन उल्काओं के बारे में नहीं जानता मैं’
 
 
पृथ्वी ने भी ऐसा ही जवाब दिया
 
 
‘मैं तो ख़ुद एक टूटे हुए तारे की कड़ी हूँ
 
 
उल्काओं के बारे में तो जानती हूँ मैं
 
 
लेकिन बसंत से उनका रिश्ता मुझे पता नहीं’
 
 
एक गिरती हुई उल्का ने ही
 
 
तुम्हारे सवाल का जवाब दिया
 
 
‘ब्रह्माण्ड एक वृक्ष है और ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र उसकी शाखाएं हैं
 
 
हम जैसे छोटे सितारे उसके पत्‍ते हैं
 
 
पृथ्वी पर जब बसन्त आता है तो
 
 
हम देखने चले आते हैं
 
 
झड़े हुए पत्‍ते हमारे पिछले बरस के दोस्त हैं’
 
 
 
आओ हम दोनों मिलकर
 
 
इस बसंत में आयी हुई उल्काओं का स्वागत करें 
 
 
 
दूर हों या पास
 
 
 
कितनी लम्बी दूरियाँ हैं
 
 
और कितनी सीमाएं हैं हमारे बीच कि
 
 
जब दर्द से फटा जा रहा हो तुम्हारा सिर
 
 
मैं कुछ नहीं कर सकता
 
 
सिवा सांत्वना के दो शब्द कहने के
 
 
जब तुम्हें सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है मेरी
 
 
मैं तुम्हारे पास नहीं होता
 
 
जब तुम्हें चाहिये होता है मेरा हाथ
 
 
मैं नहीं होता अक्सर तुम्हारे साथ
 
 
कितनी भोली और भली हो तुम
 
 
जो सहज ही कर लेती हो मुझ पर विश्वास
 
 
मैं नहीं जानता
 
 
कैसे काम कर जाते हैं मेरे कुछ शब्द
 
 
तेज़ बुखार या भयानक सरदर्द में
 
 
मेरे जुकाम पर घर को अस्पताल बना देने वाली
 
 
मेरी बातों से क्यों बहल जाती हो
 
 
इतना भोलापन अच्छा नहीं
 
 
कब समझोगी तुम कि
 
 
मेरे शब्द पुरुषोचित संजीदगी से ज़्यादा कुछ नहीं
 
 
तुम्हारे साथ या पास होकर भी मैं क्या कर लेता
 
 
सर दबा देता या माथा चूम लेता
 
 
और तुम ख़ुश हो जाती
 
 
 
हम दूर हों या पास मगर एक साथ
 
 
एक विश्वास भरे स्पर्श या चुम्बन की प्रतीक्षा में
 
 
ज़िंदगी जीने का रोज़ाना अभ्यास करते हैं 
 
 
 
उसने कहा था...
 
 
 
याद करते रहना
 
 
मगर रोना नहीं
 
 
मन करे तो चिट्ठी लिखना
 
 
लेकिन, डाकिए की राह
 
 
कभी मत देखना
 
 
 
मैं न रोया
 
 
न चिट्ठी लिखी
 
 
हाँ, याद रखा उसका जाना
 
 
और जो उसने कहा था
 
 
 
प्रेम की पीड़ा में
 
 
बिना रोये ही
 
 
सूख गयीं आँखें
 
 
चिट्ठियाँ लिखना तक भूल गये हाथ
 
 
 
तुमने कहा था
 
 
 
एक
 
 
 
आकाश में जो सबसे ऊँचे उड़ते हैं पंछी
 
 
वे ही सबसे लंबा सफर तय करते हैं
 
 
क्या तुम मेरे लिये इतना कर सकोगे ?
 
 
जाओ ! तौलकर देखो अपने डैने
 
 
क्षणिक उड़ान के पंछी नहीं हो तुम
 
 
 
दो
 
 
 
यह देह रहे न रहे
 
 
मेरा प्रेम हमेशा रहेगा
 
 
मेरी अनुपस्थिति में जब तुम मुझे पुकारोगे
 
 
तुम्हारे भीतर जाग उठूंगी मैं
 
 
मुझे याद करोगे जब
 
 
तुम्हारी आँखों से आँसू बन ढरक जाऊंगी
 
 
उन आँसूओं को पीना मत भूलना
 
 
मुझे अदेह चुम्बन से वंचित मत रखना
 
 
 
तीन
 
 
 
पहला चुम्बन और पहला आलिंगन
 
 
कभी नहीं भूलता कोई
 
 
भूलने के लिए और भी बहुत-सी चीजे़ं हैं
 
 
 
मसलन बहुत सारे सुख जो हमने साथ-साथ भोगे
 
 
उन दुखों को नहीं भूलना प्रिय
 
 
जो हमने साथ-साथ काटे
 
 
 
चार
 
 
 
हमारा प्रेम एक दुख है
 
 
जैसे पृथ्वी पर दूसरे दुख हैं
 
 
वे भी हमारे ही दुख हैं
 
 
हमने दुख गिने नहीं, जो मिले भोग लिये
 
 
क्योंकि प्रेम सबसे बड़ा दुख है
 
 
 
पाँच
 
 
 
यह चंद्रमा न होता तो
 
 
यह पृथ्वी भी ऐसी न होती
 
 
चंद्रमा और पृथ्वी के बीच
 
 
जो शून्य गुरूत्वाकर्षण है
 
 
वहीं हमारा प्रेम बसता है
 
 
 
छः
 
 
 
मेरे पास चंद सिक्के हैं
 
 
और तुम्हारे पास थोड़े से रुपये
 
 
क्यों न हम इस थोड़ी-सी पूंजी से एक सपना देखें
 
 
सपने के इस थियेटर में हम
 
 
अकेले ही तो नहीं होंगे ?
 
 
 
दादी की खोज में
 
 
 
उस गुवाड़़ी में यूँ अचानक बिना सूचना दिये मेरा चले जाना
 
 
घर-भर की अफ़रा-तफ़री का बायस बना
 
 
नंग-धड़ंग बच्चों को लिये दो स्त्रियाँ झोंपड़ों में चली गईं
 
 
एक बूढ़ी स्त्री जो दूर के रिश्ते में
 
 
मेरी दादी की बहन थी
 
 
मुझे ग़ौर से देखने लगी
 
 
अपने जीवन का सारा अनुभव लगा कर उसने
 
 
बिना बताए ही पहचान लिया मुझे
 
 
 
‘तू गंगा को पोतो आ बेटा आ’
 
 
मेरे चरण-स्पर्श से आल्हादित हो उसने
 
 
अपने पीढे़ पर मेरे लिए जगह बनायी
 
 
बहुओं को मेरी शिनाख़्त की घोषणा की
 
 
और पूछने लगी मुझसे घर-भर के समाचार
 
 
थोड़ी देर में आयी एक स्त्री
 
 
पीतल के बड़े-से गिलास में मेरे लिए पानी लिये
 
 
मैं पानी पीता हुआ देखता रहा
 
 
उसके दूसरे हाथ में गुळी के लोटे को
 
 
एक पुरानी सभ्यता की तरह
 
 
थोड़ी देर बाद दूसरी स्त्री
 
 
टूटी डण्डी के कपों में चाय लिए आयी
 
 
उसके साथ आये
 
 
चार-बच्चे चड्डियाँ पहने
 
 
उनके पीछे एक लड़की और लड़का
 
 
स्कूल-यूनिफार्म में
 
 
कदाचित यह उनकी सर्वश्रेष्ठ पोशाक थी
 
 
 
मैं अपनी दादी की दूर के रिश्ते की बहन से मिला
 
 
मैंने तो क्या मेरे पिताजी ने भी
 
 
ठीक से नहीं देखी मेरी दादी
 
 
कहते हैं पिताजी
 
 
‘माँ सिर्फ़ सपने में ही दिखायी देती हैं वह भी कभी-कभी’
 
 
उस गुवाड़ी से निकलकर मैं जब बाहर आया
 
 
तो उस बूढ़ी स्त्री के चेहरे में
 
 
अपनी दादी को खोजते-खोजते
 
 
अपनी बेटी तक चला आया
 
 
 
जिन्होंने नहीं देखी हैं दादियाँ
 
 
उनके घर चली आती हैं दादियाँ
 
 
बेटियों की शक्ल में 
 
 
 
बस में नींद लेती एक स्त्री
 
 
 
घर से दफ़्तर के स्टाप तक
 
 
सिटी बस के चालीस मिनट के सफ़र में सुबह-शाम
 
 
पैंतीस मिनट नींद लेती है स्त्री
 
 
      घर और दफ़्तर ने मिलकर लूट ली है स्त्री की रातों की नींद
 
 
      वह स्त्री आराम चाहती है जो सिर्फ़ बस में मिलता है
 
 
      स्त्री इस नींद भरे सफ़र में ही हासिल कर पाती है
 
 
      अपने लिए समय
 
 
स्त्री के चेहरे पर ग़म या ख़ुशी के कोई निशान नहीं है
 
 
वहाँ एक पथरीली उदासी है
 
 
जो साँवली त्वचा पर बेरुख़ी से चस्पाँ कर दी गई है
 
 
      उसके एक हाथ की लकीरों में बर्तन माँजने से भरी कालिख़ है
 
 
      तो दूसरे हाथ में ख़राब समय को दर्शाती पुरानी घड़ी है
 
 
      जल्दबाजी में सँवारे गये बालों में अंदाज़ से काढ़ी गई माँग है
 
 
      और माँग में झुँझलाहट से भरा गया सिंदूर है
 
 
      आपाधापी से भरी दुनिया में अब
 
 
      वह भूल चुकी है माँग और सिंदूर के रिश्ते की पुरानी परिभाषा
 
 
स्त्री की आँखों में नींद का एक समुद्र है
 
 
जिसमें आकण्ठ डूब जाना चाहती है वह
 
 
लेकिन घर और दफ़्तर के बीच पसरा हुआ रेगिस्तान
 
 
उसकी इच्छाओं को सोख लेता है
 
 
      स्त्री इस महान गणतंत्र की सिटी बस में नींद लेती है
 
 
      गणतंत्र के पहरुए कृपया उसे डिस्टर्ब न करें
 
 
      उसे इस हालत तक पहुँचा देने वाले उस पर न हँसें
 
 
उसकी दो वक्तों की नींद
 
 
इस महान् लोकतंत्र के बारे में  दो गम्भीर टिप्पणियाँ हैं
 
 
इन्हें ग़ौर से सुना जाना चाहिए 
 
 
 
मलयाली स्त्रियाँ
 
 
 
दो जून भात की तलाश में
 
 
अपना घर-परिवार और
 
 
हरा-भरा संसार छोड़कर
 
 
रेत के धोरों तक आती हैं
 
 
समुद्र की बेटियाँ
 
 
 
भाषाई झगड़ों को भूलकर
 
 
बड़ी मेहनत से सीखती हैं हिन्दी
 
 
जैसे सीखी थी कभी अंग्रेज़ी
 
 
जो यहाँ कम काम आती है
 
 
 
कुछ दिन उन्हें परेशान करती हैं
 
 
धूल-भरी आँधियाँ और तपती लू
 
 
धीरे-धीरे वे समझ लेती हैं
 
 
रेत के समंदर को हिन्द महासागर
 
 
 
चिपरिचित सागर गर्जना से
 
 
हजारों कोस दूर वे
 
 
कुशल ग़ोताख़ोर की तरह
 
 
चुनती रहती हैं
 
 
उम्मीद की सीपियाँ
 
 
जिनमें से निकलेंगे वे मोती
 
 
जिनसे भरा जा सकेगा
 
 
मरुथल से सागर तक का फ़ासला
 
 
और दोनों वक्त पेट
 
 
 
ये श्यामवर्णी समुद्र की बेटियाँ
 
 
अपने केशों में बसी नारियल की गंध से
 
 
सुवासित करती रहती हैं
 
 
रेगिस्तान की तपती जलवायु
 
 
हर पल सजाती रहती हैं
 
 
अपनी मेहनत से नखलिस्तान 
 
 
 
तुम्‍हारे जन्‍मदिन पर
 
 
 
फूलों की घाटी में
 
 
प्रकृति ने आज ही खिलाये होंगे
 
 
सबसे सुंदर-सुगंधित फूल
 
 
आसमान के आईने में
 
 
पृथ्वी ने देखा होगा
 
 
अपना अद्भुत रूप
 
 
पक्षियों ने गाये होंगे
 
 
सबसे मीठे गीत
 
 
तुम्हारी पहली किलकारी में
 
 
कोयल ने जोड़ी होगी अपनी तान
 
 
सृष्टि ने उंडेल दिया होगा
 
 
अपना सर्वोत्‍तम रूप
 
 
तुम्हारे भीतर
 
 
 
आज ही के दिन
 
 
कवियों ने लिखी होंगी
 
 
अपनी सर्वश्रेष्ठ कविताएं
 
 
संगीतकारों ने रची होगी
 
 
अपनी सर्वोत्‍तम रचनाएं
 
 
 
आज ही के दिन
 
 
शिव मुग्ध हुए होंगे
 
 
पार्वती के रूप पर
 
 
बुद्ध को मिला होगा ज्ञान
 
 
फिर से जी उठे होंगे ईसा मसीह
 
 
हज़रत मुहम्मद ने दिया होगा पहला उपदेश
 
 
 
 
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21:05, 31 मई 2009 के समय का अवतरण

बुनकरों के इस गाँव में अब
बुजुर्ग भी भूल चुके हैं बुनने की कला
स्त्रियाँ भूल गयी हैं चरखा चलाना
चरखा चलाते हुए गीत गाना
बुनकरों का है यह गाँव
और कोई बुनकर नहीं है यहाँ

यहाँ झोपड़ों पर मौसमों की मार से
इस क़दर गल चुके हैं चरखे
कि अब ईंधन के लायक भी नहीं रहे और
चूल्हे की भेंट चढ़ चुका है करघा
चरखियाँ अब बच्चों के खिलौनों में भी नहीं रही

मानव सभ्यता की प्राचीनतम कला के
हुनरमंदों के इस गाँव में अब
शहर से आते हैं कपड़े
जैसे सूर्यग्रहण के दिन
धरती से देखा जाता है सूर्य
चन्द्रमा के प्रकाश में

चांद से रोशनी
माँगता हुआ सूरज है
बुनकरों का यह गाँव