"इतिहास हंता मैं / ऋषभ देव शर्मा" के अवतरणों में अंतर
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भाई से ज़बान लड़ाई थी - | भाई से ज़बान लड़ाई थी - | ||
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मैं अपना इतिहास जलाकर आई थी - | मैं अपना इतिहास जलाकर आई थी - | ||
तुम्हें पाने को! | तुम्हें पाने को! | ||
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तुमने मुझे नया नाम दिया - | तुमने मुझे नया नाम दिया - | ||
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मैं भागी चली आई थी | मैं भागी चली आई थी | ||
तुम्हें पाने को ; | तुम्हें पाने को ; | ||
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और सो गई थी | और सो गई थी | ||
थककर चकनाचूर. | थककर चकनाचूर. | ||
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आँख खुली तो तुम्हारी दाढ़ी उग आई थी , | आँख खुली तो तुम्हारी दाढ़ी उग आई थी , | ||
तुम हिजाब कहकर | तुम हिजाब कहकर | ||
मेरे ऊपर कफ़न डाल रहे थे. | मेरे ऊपर कफ़न डाल रहे थे. | ||
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तुम्हारी आँखों में देखा मैंने झाँककर - | तुम्हारी आँखों में देखा मैंने झाँककर - | ||
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मैं देखती ही रह गई ; | मैं देखती ही रह गई ; | ||
तुमने मुझे ज़िंदा कब्र में गाड़ दिया! | तुमने मुझे ज़िंदा कब्र में गाड़ दिया! | ||
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एक बार फिर | एक बार फिर |
20:15, 24 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
मैं घर से निकल आई थी
तुम्हें पाने को ,
मैंने धरम की दीवार गिराई थी
तुम्हें पाने को,
अपने पिता से आँख मिलाई थी -
भाई से ज़बान लड़ाई थी -
तुम्हें पाने को!
माँ अपनी कोख नाखूनों से नोंचती रह गई ,
पिता ने जीते जी मेरा श्राद्ध कर दिया;
मैंने मुड़ कर नहीं देखा.
मैं अपना इतिहास जलाकर आई थी -
तुम्हें पाने को!
तुमने मुझे नया नाम दिया -
मैंने स्वीकार किया ,
तुमने मुझे नया मज़हब दिया -
मैंने अंगीकार किया.
वैसे ये शब्द उतने ही निरर्थक थे
जितना मेरा जला हुआ अतीत.
मैंने प्रतिकार नहीं किया था .
तुम जैसे भी थे,जो भी थे -
बेशर्त मेरे प्रेमपात्र थे.
मैं भागी चली आई थी
तुम्हें पाने को ;
और सो गई थी
थककर चकनाचूर.
आँख खुली तो तुम्हारी दाढ़ी उग आई थी ,
तुम हिजाब कहकर
मेरे ऊपर कफ़न डाल रहे थे.
तुम्हारी आँखों में देखा मैंने झाँककर -
ये तो मेरे पिता की आँखें हैं!
मैं देखती ही रह गई ;
तुमने मुझे ज़िंदा कब्र में गाड़ दिया!
एक बार फिर
सब कुछ जलाना होगा -
मुझे
खुद को पाने को!!