"मधुशाला / भाग ३ / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
|सारणी=मधुशाला / हरिवंशराय बच्चन | |सारणी=मधुशाला / हरिवंशराय बच्चन | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatRubaayi}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | वादक बन मधु का विक्रेता लाया सुर-सुमधुर-हाला, | ||
+ | रागिनियाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला, | ||
+ | विक्रेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में, | ||
+ | पान कराती श्रोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।४१। | ||
− | + | चित्रकार बन साकी आता लेकर तूली का प्याला, | |
− | + | जिसमें भरकर पान कराता वह बहु रस-रंगी हाला, | |
− | + | मन के चित्र जिसे पी-पीकर रंग-बिरंगे हो जाते, | |
− | + | चित्रपटी पर नाच रही है एक मनोहर मधुशाला।।४२। | |
− | + | घन श्यामल अंगूर लता से खिंच खिंच यह आती हाला, | |
− | + | अरूण-कमल-कोमल कलियों की प्याली, फूलों का प्याला, | |
− | + | लोल हिलोरें साकी बन बन माणिक मधु से भर जातीं, | |
− | + | हंस मज्ञल्तऌा होते पी पीकर मानसरोवर मधुशाला।।४३। | |
− | + | हिम श्रेणी अंगूर लता-सी फैली, हिम जल है हाला, | |
− | + | चंचल नदियाँ साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला, | |
− | + | कोमल कूर-करों में अपने छलकाती निशिदिन चलतीं, | |
− | + | पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला।।४४। | |
− | + | धीर सुतों के हृदय रक्त की आज बना रक्तिम हाला, | |
− | + | वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला, | |
− | + | अति उदार दानी साकी है आज बनी भारतमाता, | |
− | + | स्वतंत्रता है तृषित कालिका बलिवेदी है मधुशाला।।४५। | |
− | + | दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला, | |
− | + | ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला, | |
− | + | कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को? | |
− | + | शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६। | |
− | + | पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला, | |
− | + | सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला, | |
− | + | मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता, | |
− | + | मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।।४७। | |
− | + | सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला, | |
− | + | सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला, | |
− | + | शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से | |
− | + | चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।।४८। | |
− | + | बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला, | |
− | + | गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला, | |
− | शेख, | + | शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को |
− | + | अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!।४९। | |
− | + | मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला, | |
− | + | एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला, | |
− | + | दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते, | |
− | + | बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।५०। | |
− | + | कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला, | |
− | एक, | + | बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला, |
− | + | एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले, | |
− | + | देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!।५१। | |
− | + | और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला, | |
− | + | इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला, | |
− | + | कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मस्जिद मन्दिर में | |
− | + | घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला।।५२। | |
− | + | आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला, | |
− | + | आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला, | |
− | + | होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर | |
− | + | जहाँ अभी हैं मन्िदर मस्जिद वहाँ बनेगी मधुशाला।।५३। | |
− | + | यज्ञ अग्नि सी धधक रही है मधु की भटठी की ज्वाला, | |
− | + | ऋषि सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला, | |
− | + | मुनि कन्याओं सी मधुघट ले फिरतीं साकीबालाएँ, | |
− | + | किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।।५४। | |
− | + | सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला, | |
− | + | द्रोणकलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला, | |
− | + | वेदिवहित यह रस्म न छोड़ो वेदों के ठेकेदारों, | |
− | + | युग युग से है पुजती आई नई नहीं है मधुशाला।।५५। | |
− | + | वही वारूणी जो थी सागर मथकर निकली अब हाला, | |
− | + | रंभा की संतान जगत में कहलाती 'साकीबाला', | |
− | + | देव अदेव जिसे ले आए, संत महंत मिटा देंगे! | |
− | + | किसमें कितना दम खम, इसको खूब समझती मधुशाला।।५६। | |
− | + | कभी न सुन पड़ता, 'इसने, हा, छू दी मेरी हाला', | |
− | + | कभी न कोई कहता, 'उसने जूठा कर डाला प्याला', | |
− | + | सभी जाति के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं, | |
− | + | सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला।।५७। | |
− | + | श्रम, संकट, संताप, सभी तुम भूला करते पी हाला, | |
− | + | सबक बड़ा तुम सीख चुके यदि सीखा रहना मतवाला, | |
− | + | व्यर्थ बने जाते हो हिरजन, तुम तो मधुजन ही अच्छे, | |
− | + | ठुकराते हिर मंिदरवाले, पलक बिछाती मधुशाला।।५८। | |
− | + | एक तरह से सबका स्वागत करती है साकीबाला, | |
− | + | अज्ञ विज्ञ में है क्या अंतर हो जाने पर मतवाला, | |
− | + | रंक राव में भेद हुआ है कभी नहीं मदिरालय में, | |
− | + | साम्यवाद की प्रथम प्रचारक है यह मेरी मधुशाला।।५९। | |
− | + | बार बार मैंने आगे बढ़ आज नहीं माँगी हाला, | |
− | + | समझ न लेना इससे मुझको साधारण पीने वाला, | |
− | + | हो तो लेने दो ऐ साकी दूर प्रथम संकोचों को, | |
− | + | मेरे ही स्वर से फिर सारी गूँज उठेगी मधुशाला।।६०। | |
− | + | </poem> | |
− | बार बार मैंने आगे बढ़ आज नहीं माँगी हाला, | + | |
− | समझ न लेना इससे मुझको साधारण पीने वाला, | + | |
− | हो तो लेने दो ऐ साकी दूर प्रथम संकोचों को, | + | |
− | मेरे ही स्वर से फिर सारी गूँज उठेगी मधुशाला।।६०।< | + | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + |
15:23, 25 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
वादक बन मधु का विक्रेता लाया सुर-सुमधुर-हाला,
रागिनियाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला,
विक्रेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में,
पान कराती श्रोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।४१।
चित्रकार बन साकी आता लेकर तूली का प्याला,
जिसमें भरकर पान कराता वह बहु रस-रंगी हाला,
मन के चित्र जिसे पी-पीकर रंग-बिरंगे हो जाते,
चित्रपटी पर नाच रही है एक मनोहर मधुशाला।।४२।
घन श्यामल अंगूर लता से खिंच खिंच यह आती हाला,
अरूण-कमल-कोमल कलियों की प्याली, फूलों का प्याला,
लोल हिलोरें साकी बन बन माणिक मधु से भर जातीं,
हंस मज्ञल्तऌा होते पी पीकर मानसरोवर मधुशाला।।४३।
हिम श्रेणी अंगूर लता-सी फैली, हिम जल है हाला,
चंचल नदियाँ साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला,
कोमल कूर-करों में अपने छलकाती निशिदिन चलतीं,
पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला।।४४।
धीर सुतों के हृदय रक्त की आज बना रक्तिम हाला,
वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला,
अति उदार दानी साकी है आज बनी भारतमाता,
स्वतंत्रता है तृषित कालिका बलिवेदी है मधुशाला।।४५।
दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,
कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६।
पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला,
सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला,
मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,
मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।।४७।
सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला,
सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला,
शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से
चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।।४८।
बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला,
गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला,
शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को
अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!।४९।
मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।५०।
कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,
देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!।५१।
और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला,
इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला,
कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मस्जिद मन्दिर में
घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला।।५२।
आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला,
आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला,
होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर
जहाँ अभी हैं मन्िदर मस्जिद वहाँ बनेगी मधुशाला।।५३।
यज्ञ अग्नि सी धधक रही है मधु की भटठी की ज्वाला,
ऋषि सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला,
मुनि कन्याओं सी मधुघट ले फिरतीं साकीबालाएँ,
किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।।५४।
सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला,
द्रोणकलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला,
वेदिवहित यह रस्म न छोड़ो वेदों के ठेकेदारों,
युग युग से है पुजती आई नई नहीं है मधुशाला।।५५।
वही वारूणी जो थी सागर मथकर निकली अब हाला,
रंभा की संतान जगत में कहलाती 'साकीबाला',
देव अदेव जिसे ले आए, संत महंत मिटा देंगे!
किसमें कितना दम खम, इसको खूब समझती मधुशाला।।५६।
कभी न सुन पड़ता, 'इसने, हा, छू दी मेरी हाला',
कभी न कोई कहता, 'उसने जूठा कर डाला प्याला',
सभी जाति के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला।।५७।
श्रम, संकट, संताप, सभी तुम भूला करते पी हाला,
सबक बड़ा तुम सीख चुके यदि सीखा रहना मतवाला,
व्यर्थ बने जाते हो हिरजन, तुम तो मधुजन ही अच्छे,
ठुकराते हिर मंिदरवाले, पलक बिछाती मधुशाला।।५८।
एक तरह से सबका स्वागत करती है साकीबाला,
अज्ञ विज्ञ में है क्या अंतर हो जाने पर मतवाला,
रंक राव में भेद हुआ है कभी नहीं मदिरालय में,
साम्यवाद की प्रथम प्रचारक है यह मेरी मधुशाला।।५९।
बार बार मैंने आगे बढ़ आज नहीं माँगी हाला,
समझ न लेना इससे मुझको साधारण पीने वाला,
हो तो लेने दो ऐ साकी दूर प्रथम संकोचों को,
मेरे ही स्वर से फिर सारी गूँज उठेगी मधुशाला।।६०।