(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
|सारणी=मधुशाला / हरिवंशराय बच्चन | |सारणी=मधुशाला / हरिवंशराय बच्चन | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatRubaayi}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | ढलक रही हो तन के घट से,संगिनि,जब जीवन-हाला, | ||
+ | पात्र गरल का ले जब अंतिम साकी हो आनेवाला, | ||
+ | हाथ परस भूले प्याले का,स्वाद-सुरा जीव्हा भूले, | ||
+ | कानों में तुम कहती रहना,मधुकण,प्याला,मधुशाला।।८१। | ||
− | + | मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसी-दल,प्याला, | |
− | + | मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल, हाला, | |
− | + | मेरे शव के पीछे चलने वालों, याद इसे रखना- | |
− | + | राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।।८२। | |
− | मेरे | + | मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आंसू में हाला |
− | + | आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला, | |
− | + | दे मुझको वो कांधा जिनके पग मद डगमग होते हों | |
− | + | और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।८३। | |
− | + | और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला | |
− | + | कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला, | |
− | + | प्राण प्रिये यदि श्राध करो तुम मेरा तो ऐसे करना | |
− | + | पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।।८४। | |
− | और | + | नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला |
− | + | काम ढालना, और ढालना सबको मदिरा का प्याला, | |
− | + | जाति प्रिये, पूछे यदि कोई कह देना दीवानों की | |
− | + | धर्म बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला।।८५। | |
− | + | ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला, | |
− | + | पंडित अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला, | |
− | + | और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला, | |
− | + | किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।८६। | |
− | + | यम ले चलता है मुझको तो, चलने दे लेकर हाला, | |
− | + | चलने दे साकी को मेरे साथ लिए कर में प्याला, | |
− | + | स्वर्ग, नरक या जहाँ कहीं भी तेरा जी हो लेकर चल, | |
− | + | ठौर सभी हैं एक तरह के साथ रहे यदि मधुशाला।।८७। | |
− | + | पाप अगर पीना, समदोषी तो तीनों - साकी बाला, | |
− | + | नित्य पिलानेवाला प्याला, पी जानेवाली हाला, | |
− | + | साथ इन्हें भी ले चल मेरे न्याय यही बतलाता है, | |
− | + | कैद जहाँ मैं हूँ, की जाए कैद वहीं पर मधुशाला।।८८। | |
− | + | शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर किस उर की ज्वाला, | |
− | + | 'और, और' की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला, | |
− | + | कितनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता! | |
− | + | कितने अरमानों की बनकर कब्र खड़ी है मधुशाला।।८९। | |
− | + | जो हाला मैं चाह रहा था, वह न मिली मुझको हाला, | |
− | + | जो प्याला मैं माँग रहा था, वह न मिला मुझको प्याला, | |
− | + | जिस साकी के पीछे मैं था दीवाना, न मिला साकी, | |
− | + | जिसके पीछे था मैं पागल, हा न मिली वह मधुशाला!।९०। | |
− | + | देख रहा हूँ अपने आगे कब से माणिक-सी हाला, | |
− | + | देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला, | |
− | + | 'बस अब पाया!'- कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे, | |
− | + | किंतु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला।।९१। | |
− | + | कभी निराशा का तम घिरता, छिप जाता मधु का प्याला, | |
− | + | छिप जाती मदिरा की आभा, छिप जाती साकीबाला, | |
− | + | कभी उजाला आशा करके प्याला फिर चमका जाती, | |
− | + | आँखिमचौली खेल रही है मुझसे मेरी मधुशाला।।९२। | |
− | + | 'आ आगे' कहकर कर पीछे कर लेती साकीबाला, | |
− | + | होंठ लगाने को कहकर हर बार हटा लेती प्याला, | |
− | + | नहीं मुझे मालूम कहाँ तक यह मुझको ले जाएगी, | |
− | + | बढ़ा बढ़ाकर मुझको आगे, पीछे हटती मधुशाला।।९३। | |
− | + | हाथों में आने-आने में, हाय, फिसल जाता प्याला, | |
− | + | अधरों पर आने-आने में हाय, ढुलक जाती हाला, | |
− | + | दुनियावालो, आकर मेरी किस्मत की ख़ूबी देखो, | |
− | + | रह-रह जाती है बस मुझको मिलते-मिलते मधुशाला।।९४। | |
− | + | प्राप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला, | |
− | + | प्राप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला, | |
− | + | दूर न इतनी हिम्मत हारुँ, पास न इतनी पा जाऊँ, | |
− | + | व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला।।९५। | |
− | + | मिले न, पर, ललचा ललचा क्यों आकुल करती है हाला, | |
− | + | मिले न, पर, तरसा तरसाकर क्यों तड़पाता है प्याला, | |
− | दूर | + | हाय, नियति की विषम लेखनी मस्तक पर यह खोद गई |
− | + | 'दूर रहेगी मधु की धारा, पास रहेगी मधुशाला!'।९६। | |
− | + | मदिरालय में कब से बैठा, पी न सका अब तक हाला, | |
− | + | यत्न सहित भरता हूँ, कोई किंतु उलट देता प्याला, | |
− | + | मानव-बल के आगे निर्बल भाग्य, सुना विद्यालय में, | |
− | ' | + | 'भाग्य प्रबल, मानव निर्बल' का पाठ पढ़ाती मधुशाला।।९७। |
− | + | किस्मत में था खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला, | |
− | + | ढूँढ़ रहा था मैं मृगनयनी, किस्मत में थी मृगछाला, | |
− | + | किसने अपना भाग्य समझने में मुझसा धोखा खाया, | |
− | + | किस्मत में था अवघट मरघट, ढूँढ़ रहा था मधुशाला।।९८। | |
− | + | उस प्याले से प्यार मुझे जो दूर हथेली से प्याला, | |
− | + | उस हाला से चाव मुझे जो दूर अधर से है हाला, | |
− | + | प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में! | |
− | + | पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला।।९९। | |
− | + | साकी के पास है तिनक सी श्री, सुख, संपित की हाला, | |
− | + | सब जग है पीने को आतुर ले ले किस्मत का प्याला, | |
− | + | रेल ठेल कुछ आगे बढ़ते, बहुतेरे दबकर मरते, | |
− | + | जीवन का संघर्ष नहीं है, भीड़ भरी है मधुशाला।।१००। | |
− | + | </poem> | |
− | साकी के पास है तिनक सी श्री, सुख, संपित की हाला, | + | |
− | सब जग है पीने को आतुर ले ले किस्मत का प्याला, | + | |
− | रेल ठेल कुछ आगे बढ़ते, बहुतेरे दबकर मरते, | + | |
− | जीवन का संघर्ष नहीं है, भीड़ भरी है मधुशाला।।१००।< | + | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + |
15:28, 25 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
ढलक रही हो तन के घट से,संगिनि,जब जीवन-हाला,
पात्र गरल का ले जब अंतिम साकी हो आनेवाला,
हाथ परस भूले प्याले का,स्वाद-सुरा जीव्हा भूले,
कानों में तुम कहती रहना,मधुकण,प्याला,मधुशाला।।८१।
मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसी-दल,प्याला,
मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल, हाला,
मेरे शव के पीछे चलने वालों, याद इसे रखना-
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।।८२।
मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आंसू में हाला
आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला,
दे मुझको वो कांधा जिनके पग मद डगमग होते हों
और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।८३।
और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला
कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,
प्राण प्रिये यदि श्राध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।।८४।
नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला
काम ढालना, और ढालना सबको मदिरा का प्याला,
जाति प्रिये, पूछे यदि कोई कह देना दीवानों की
धर्म बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला।।८५।
ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला,
पंडित अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला,
और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,
किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।८६।
यम ले चलता है मुझको तो, चलने दे लेकर हाला,
चलने दे साकी को मेरे साथ लिए कर में प्याला,
स्वर्ग, नरक या जहाँ कहीं भी तेरा जी हो लेकर चल,
ठौर सभी हैं एक तरह के साथ रहे यदि मधुशाला।।८७।
पाप अगर पीना, समदोषी तो तीनों - साकी बाला,
नित्य पिलानेवाला प्याला, पी जानेवाली हाला,
साथ इन्हें भी ले चल मेरे न्याय यही बतलाता है,
कैद जहाँ मैं हूँ, की जाए कैद वहीं पर मधुशाला।।८८।
शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर किस उर की ज्वाला,
'और, और' की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला,
कितनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता!
कितने अरमानों की बनकर कब्र खड़ी है मधुशाला।।८९।
जो हाला मैं चाह रहा था, वह न मिली मुझको हाला,
जो प्याला मैं माँग रहा था, वह न मिला मुझको प्याला,
जिस साकी के पीछे मैं था दीवाना, न मिला साकी,
जिसके पीछे था मैं पागल, हा न मिली वह मधुशाला!।९०।
देख रहा हूँ अपने आगे कब से माणिक-सी हाला,
देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला,
'बस अब पाया!'- कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे,
किंतु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला।।९१।
कभी निराशा का तम घिरता, छिप जाता मधु का प्याला,
छिप जाती मदिरा की आभा, छिप जाती साकीबाला,
कभी उजाला आशा करके प्याला फिर चमका जाती,
आँखिमचौली खेल रही है मुझसे मेरी मधुशाला।।९२।
'आ आगे' कहकर कर पीछे कर लेती साकीबाला,
होंठ लगाने को कहकर हर बार हटा लेती प्याला,
नहीं मुझे मालूम कहाँ तक यह मुझको ले जाएगी,
बढ़ा बढ़ाकर मुझको आगे, पीछे हटती मधुशाला।।९३।
हाथों में आने-आने में, हाय, फिसल जाता प्याला,
अधरों पर आने-आने में हाय, ढुलक जाती हाला,
दुनियावालो, आकर मेरी किस्मत की ख़ूबी देखो,
रह-रह जाती है बस मुझको मिलते-मिलते मधुशाला।।९४।
प्राप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला,
प्राप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला,
दूर न इतनी हिम्मत हारुँ, पास न इतनी पा जाऊँ,
व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला।।९५।
मिले न, पर, ललचा ललचा क्यों आकुल करती है हाला,
मिले न, पर, तरसा तरसाकर क्यों तड़पाता है प्याला,
हाय, नियति की विषम लेखनी मस्तक पर यह खोद गई
'दूर रहेगी मधु की धारा, पास रहेगी मधुशाला!'।९६।
मदिरालय में कब से बैठा, पी न सका अब तक हाला,
यत्न सहित भरता हूँ, कोई किंतु उलट देता प्याला,
मानव-बल के आगे निर्बल भाग्य, सुना विद्यालय में,
'भाग्य प्रबल, मानव निर्बल' का पाठ पढ़ाती मधुशाला।।९७।
किस्मत में था खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला,
ढूँढ़ रहा था मैं मृगनयनी, किस्मत में थी मृगछाला,
किसने अपना भाग्य समझने में मुझसा धोखा खाया,
किस्मत में था अवघट मरघट, ढूँढ़ रहा था मधुशाला।।९८।
उस प्याले से प्यार मुझे जो दूर हथेली से प्याला,
उस हाला से चाव मुझे जो दूर अधर से है हाला,
प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में!
पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला।।९९।
साकी के पास है तिनक सी श्री, सुख, संपित की हाला,
सब जग है पीने को आतुर ले ले किस्मत का प्याला,
रेल ठेल कुछ आगे बढ़ते, बहुतेरे दबकर मरते,
जीवन का संघर्ष नहीं है, भीड़ भरी है मधुशाला।।१००।