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"फुहारों वाली बारिश / नागार्जुन" के अवतरणों में अंतर

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जाने, किधर से
 
जाने, किधर से
 
 
चुपचाप आकर
 
चुपचाप आकर
 
 
हाथी सामने लेट गए हैं,
 
हाथी सामने लेट गए हैं,
 
 
जाने किधर से
 
जाने किधर से
 
 
चुपचाप आकर
 
चुपचाप आकर
 
 
हाथी सामने बैठ गए हैं !
 
हाथी सामने बैठ गए हैं !
 
 
पहाड़ों-जैसे
 
पहाड़ों-जैसे
 
 
अति विशाल आयतनोंवाले
 
अति विशाल आयतनोंवाले
 
 
पाँच-सात हाथी
 
पाँच-सात हाथी
 
 
सामने--बिल्कुल निकट
 
सामने--बिल्कुल निकट
 
 
जम गए हैं
 
जम गए हैं
 
 
इनका परिमण्डल
 
इनका परिमण्डल
 
 
हमें बार-बार ललचाता रहेगा
 
हमें बार-बार ललचाता रहेगा
 
 
छिड़ने-छेड़ने के लिए
 
छिड़ने-छेड़ने के लिए
 
 
सदैव बुलावा देता रहेगा !
 
सदैव बुलावा देता रहेगा !
 
  
 
लो, ये गिरी-कुंजर
 
लो, ये गिरी-कुंजर
 
 
और भी विशाल होने लगे !
 
और भी विशाल होने लगे !
 
 
लो, ये दूर हट गए,
 
लो, ये दूर हट गए,
 
 
लो, ये और भी पास आ रहे,
 
लो, ये और भी पास आ रहे,
 
 
लो, इनका लीलाधरी रूप
 
लो, इनका लीलाधरी रूप
 
 
और भी फैलता जा रहा,
 
और भी फैलता जा रहा,
 
 
लेकिन, ये गुमसुम क्यों हैं ?
 
लेकिन, ये गुमसुम क्यों हैं ?
 
 
अरे, इन्होंने तो
 
अरे, इन्होंने तो
 
 
ढक लिया अपने आपको
 
ढक लिया अपने आपको
 
 
हल्की-पतली पारदर्शी चादरों से
 
हल्की-पतली पारदर्शी चादरों से
 
 
झीने-झीने, 'लूज'
 
झीने-झीने, 'लूज'
 
 
झीनी-झीनी, लूज बिनावटवाली
 
झीनी-झीनी, लूज बिनावटवाली
 
 
वो मटमैली ओढ़नी
 
वो मटमैली ओढ़नी
 
 
बादलों को ढक लेगी अब
 
बादलों को ढक लेगी अब
 
 
अब फुहारोंवाली बारिश होगी
 
अब फुहारोंवाली बारिश होगी
 
 
बड़ी-बड़ी बूँदें तो यह
 
बड़ी-बड़ी बूँदें तो यह
 
 
शायद कल बरसेंगे...
 
शायद कल बरसेंगे...
 
 
शायद परसों...
 
शायद परसों...
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शायद हफ़्ता बाद...
  
शायद हफ़्ता बाद...
 
  
  
1984 में रचित
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'''रचनाकाल : 1984 में रचित

18:52, 31 मार्च 2011 के समय का अवतरण

जाने, किधर से
चुपचाप आकर
हाथी सामने लेट गए हैं,
जाने किधर से
चुपचाप आकर
हाथी सामने बैठ गए हैं !
पहाड़ों-जैसे
अति विशाल आयतनोंवाले
पाँच-सात हाथी
सामने--बिल्कुल निकट
जम गए हैं
इनका परिमण्डल
हमें बार-बार ललचाता रहेगा
छिड़ने-छेड़ने के लिए
सदैव बुलावा देता रहेगा !

लो, ये गिरी-कुंजर
और भी विशाल होने लगे !
लो, ये दूर हट गए,
लो, ये और भी पास आ रहे,
लो, इनका लीलाधरी रूप
और भी फैलता जा रहा,
लेकिन, ये गुमसुम क्यों हैं ?
अरे, इन्होंने तो
ढक लिया अपने आपको
हल्की-पतली पारदर्शी चादरों से
झीने-झीने, 'लूज'
झीनी-झीनी, लूज बिनावटवाली
वो मटमैली ओढ़नी
बादलों को ढक लेगी अब
अब फुहारोंवाली बारिश होगी
बड़ी-बड़ी बूँदें तो यह
शायद कल बरसेंगे...
शायद परसों...
शायद हफ़्ता बाद...



रचनाकाल : 1984 में रचित