छो |
|||
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=अली सरदार जाफ़री | |रचनाकार=अली सरदार जाफ़री | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatNazm}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
तीरगी के सियाह ग़ारों से | तीरगी के सियाह ग़ारों से | ||
शहपरों की सदाएँ आती हैं | शहपरों की सदाएँ आती हैं | ||
पंक्ति 15: | पंक्ति 12: | ||
एक मैली दुकान तीरः-ओ-तार | एक मैली दुकान तीरः-ओ-तार | ||
− | इक चिराग़ और एक दोशीज़ा<ref>किशोरी | + | इक चिराग़ और एक दोशीज़ा<ref>किशोरी</ref> |
− | </ref> | + | वोह बुझी-सी है वह उदास-सा है |
− | वोह बुझी-सी है वह उदास- | + | |
− | सा है | + | |
दोनों जाड़ों की लम्बी रातों में | दोनों जाड़ों की लम्बी रातों में | ||
तीरगी और हवा से लड़ते हैं | तीरगी और हवा से लड़ते हैं | ||
पंक्ति 25: | पंक्ति 20: | ||
और हवाओं के हाथ में गुस्ताख़ | और हवाओं के हाथ में गुस्ताख़ | ||
तोड़े लेते हैं नन्हे शो’ले को | तोड़े लेते हैं नन्हे शो’ले को | ||
− | भींच लेते | + | भींच लेते हैं मैले आँचल को |
− | + | ||
लड़की रह-रह के जिस्म ढाँपती है | लड़की रह-रह के जिस्म ढाँपती है | ||
शो’ला रह-रह के थरथराता है | शो’ला रह-रह के थरथराता है | ||
− | नंगी | + | नंगी बूढ़ी ज़मीन काँपती है |
− | + | ||
तीरगी अब सियह समन्दर है | तीरगी अब सियह समन्दर है | ||
पंक्ति 38: | पंक्ति 31: | ||
फूँक डालेंगे तीरगी की मता<ref>अन्धकार की सत्ता[सम्पत्ति]</ref> | फूँक डालेंगे तीरगी की मता<ref>अन्धकार की सत्ता[सम्पत्ति]</ref> | ||
− | पर मुझे एतिमाद<ref>भरोसा | + | पर मुझे एतिमाद<ref>भरोसा</ref> है इन पर |
− | </ref> है इन पर | + | |
गो ग़रीब और बेज़बान-से हैं | गो ग़रीब और बेज़बान-से हैं | ||
दोनों हैं आग दोनों हैं शो’ला | दोनों हैं आग दोनों हैं शो’ला | ||
दोनों बिजली के ख़ानदान से हैं | दोनों बिजली के ख़ानदान से हैं | ||
− | |||
− | |||
</poem> | </poem> | ||
{{KKMeaning}} | {{KKMeaning}} |
09:48, 6 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
तीरगी के सियाह ग़ारों से
शहपरों की सदाएँ आती हैं
ले के झोंकों की तेज़ तलवारें
ठण्डी-ठण्डी हवाएँ आती हैं
बर्फ़ ने जिन पे धार रक्खी है
एक मैली दुकान तीरः-ओ-तार
इक चिराग़ और एक दोशीज़ा<ref>किशोरी</ref>
वोह बुझी-सी है वह उदास-सा है
दोनों जाड़ों की लम्बी रातों में
तीरगी और हवा से लड़ते हैं
तीरगी उठ रही है मैदाँ में
फ़ौज-दर-फ़ौज बादलों की तरह
और हवाओं के हाथ में गुस्ताख़
तोड़े लेते हैं नन्हे शो’ले को
भींच लेते हैं मैले आँचल को
लड़की रह-रह के जिस्म ढाँपती है
शो’ला रह-रह के थरथराता है
नंगी बूढ़ी ज़मीन काँपती है
तीरगी अब सियह समन्दर है
और हवा हो गयी है दीवानी
या तो दोनों चिराग़ गुल होंगे
या करेंगे वो शो’ला-अफ़शानी<ref>अंगारे बरसाना </ref>
फूँक डालेंगे तीरगी की मता<ref>अन्धकार की सत्ता[सम्पत्ति]</ref>
पर मुझे एतिमाद<ref>भरोसा</ref> है इन पर
गो ग़रीब और बेज़बान-से हैं
दोनों हैं आग दोनों हैं शो’ला
दोनों बिजली के ख़ानदान से हैं