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"चिराग़ जलते हैं / सूर्यभानु गुप्त" के अवतरणों में अंतर

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घर से बाहर वही निकलते हैं।
 
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बर्फ़ गिरती है जिन इलाकों में,
बर्फ़ गिरी है जिन इलाकों में,
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दिन पहाड़ों की तरह कटते हैं,
 
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तब कहीं रास्ते पिघलते हैं।
 
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ऐसी काई है अब मकानों पर,
ऐसी कोई है अब मकानों पर,
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धूप के पाँव भी फिसलते हैं।
 
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खुदरसी उम्र भर भटकती है,
 
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लोग इतने पते बदलते हैं।
 
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हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के,
 
हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के,
 
 
मूड आता है तब निकलते हैं।
 
मूड आता है तब निकलते हैं।
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01:49, 1 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण

जिनके अंदर चिराग़ जलते हैं,
घर से बाहर वही निकलते हैं।

बर्फ़ गिरती है जिन इलाकों में,
धूप के कारोबार चलते हैं।

दिन पहाड़ों की तरह कटते हैं,
तब कहीं रास्ते पिघलते हैं।

ऐसी काई है अब मकानों पर,
धूप के पाँव भी फिसलते हैं।

खुदरसी उम्र भर भटकती है,
लोग इतने पते बदलते हैं।

हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के,
मूड आता है तब निकलते हैं।