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"प्रतीक्षा की समीक्षा / वीरेंद्र मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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पत्र कई आए
 
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पर जिसको आना था
 
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- व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
 
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सहन में फिर उतरा पीला-सा हाशिया
 
सहन में फिर उतरा पीला-सा हाशिया
साधों पर पांव धरे चला गया डाकिया
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साधों पर पाँव धरे चला गया डाकिया
और रोज-जैसा
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और रोज़-जैसा
मटमैला दिन गुजरा
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मटमैला दिन गुज़रा
 
गीत नहीं गाया
 
गीत नहीं गाया
  
 
- व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
 
- व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
  
भरे इंतजारों से एक और गठरी
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भरे इंतज़ारों से एक और गठरी
 
रह-रहकर ऊंघ रही है पटेल नगरी
 
रह-रहकर ऊंघ रही है पटेल नगरी
  
 
अधलिखी मुखरता
 
अधलिखी मुखरता
 
कह ही तो गई वाह!
 
कह ही तो गई वाह!
खूब गुनगुनाया
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ख़ूब गुनगुनाया
  
 
-व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
 
-व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
  
 
खिडकी मैं बैठा जो गीत है पुराना
 
खिडकी मैं बैठा जो गीत है पुराना
देख रहा पत्रों का उड रहा खजाना
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देख रहा पत्रों का उड़ रहा खज़ाना
  
 
पूछ रहा मुझसे
 
पूछ रहा मुझसे
 
पतझर के पत्तों में  
 
पतझर के पत्तों में  
 
 
कौन है पराया
 
कौन है पराया
  
 
- व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
 
- व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
 
 
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10:57, 31 अगस्त 2009 के समय का अवतरण

पत्र कई आए
पर जिसको आना था
वह नहीं आया

- व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
सहन में फिर उतरा पीला-सा हाशिया
साधों पर पाँव धरे चला गया डाकिया
और रोज़-जैसा
मटमैला दिन गुज़रा
गीत नहीं गाया

- व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।

भरे इंतज़ारों से एक और गठरी
रह-रहकर ऊंघ रही है पटेल नगरी

अधलिखी मुखरता
कह ही तो गई वाह!
ख़ूब गुनगुनाया

-व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।

खिडकी मैं बैठा जो गीत है पुराना
देख रहा पत्रों का उड़ रहा खज़ाना

पूछ रहा मुझसे
पतझर के पत्तों में
कौन है पराया

- व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।