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"आख़िर / विश्वनाथप्रसाद तिवारी" के अवतरणों में अंतर

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सह्य हो जाती है कैसी भी पी़ड़ा
 
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कटा जाता है कितना भी एकान्त
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12:06, 25 अक्टूबर 2011 के समय का अवतरण

भूल जाती हैं कितनी दन्तकथाएँ
सूख जाती हैं कितनी सदानीराएँ

उड़ जाता है कैसा भी रंग
छूट जाते हैं कैसे भी हिमवंत

ख़त्म हो जाती है क़लम की स्याही
टूट जाती है तानाशाह की तलवार

सह्य हो जाती है कैसी भी पी़ड़ा
कट जाता है कितना भी एकान्त