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"नया कवि / गिरिजाकुमार माथुर" के अवतरणों में अंतर

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लाल पत्थर लाल मिट्टी लाल कंकड़ लाल बजरी
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जो अंधेरी रात में भभके अचानक
लाल फूले ढाक के वन डाँग गाती फाग कजरी
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चमक से चकचौंध भर दे
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मैं निरंतर पास आता अग्निध्वज हूँ
  
सनसनाती साँझ सूनी वायु का कंठला खनकता
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कड़कड़ाएँ रीढ़
झींगुरों की खंजड़ी पर झाँझ-सा बीहड़ झनकता
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बूढ़ी रूढ़ियों की
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झुर्रियाँ काँपें
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घुनी अनुभूतियों की
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उसी नई आवाज़ की उठती गरज हूँ।
  
कंटकित बेरी करौंदे महकते हैं झाब झोरे
+
जब उलझ जाएँ
सुन्न हैं सागौन वन के कान जैसे पात चौड़े
+
मनस गाँठें घनेरी
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बोध की हो जाएँ
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सब गलियाँ अंधेरी
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तर्क और विवेक पर
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बेसूझ जाले
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मढ़ चुके जब
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वैर रत परिपाटियों की
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अस्मि ढेरी
  
ढूह, टीले, टोरियों पर धूप-सूखी घास भूरी
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जब न युग के पास रहे उपाय तीजा
हाड़ टूटे देह कुबड़ी चुप पड़ी है देह बूढ़ी
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तब अछूती मंज़िलों की ओर
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मैं उठता कदम हूँ।
  
ताड़, तेंदू, नीम, रेंजर चित्र लिखी खजूर पाँतें
+
जब कि समझौता
छाँह मंदी डाल जिन पर ऊँघती हैं शुक्ल रातें
+
जीने की निपट अनिवार्यता हो
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परम अस्वीकार की
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झुकने न वाली मैं कसम हूँ।
  
बीच सूने में बनैले ताल का फैला अतल जल
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हो चुके हैं
थे कभी आए यहाँ पर छोड़ दमयंती दुखी नल
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सभी प्रश्नों के सभी उत्तर पुराने
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खोखले हैं
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व्यक्ति और समूह वाले
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आत्मविज्ञापित ख़जाने
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पड़ गए झूठे समन्वय
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रह न सका तटस्थ कोई
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वे सुरक्षा की नक़ाबें
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मार्ग मध्यम के बहाने
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हूँ प्रताड़ित
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क्योंकि प्रश्नों के नए उत्तर दिए हैं
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है परम अपराध
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क्योंकि मैं लीक से इतना अलग हूँ।
  
भूख व्याकुल ताल से ले मछलियाँ थीं जो पकाईं
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सब छिपाते थे सच्चाई
शाप के कारण जली ही वे उछल जल में समाईं
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जब तुरत ही सिद्धियों से
 
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असलियत को स्थगित करते
है तभी से साँवली सुनसान जंगल की किनारी
+
भाग जाते उत्तरों से
हैं तभी से ताल की सब मछलियाँ मनहूस काली
+
कला थी सुविधा परस्ती
 
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मूल्य केवल मस्लहत थे
पूर्व से उठ चाँद आधा स्याह जल में चमचमाता
+
मूर्ख थी निष्ठा
बनचमेली की जड़ों से नाग कसकर लिपट जाता
+
प्रतिष्ठा सुलभ थी आडम्बरों से
 
+
क्या करूँ
कोस भर तक केवड़े का है गसा गुंजान जंगल
+
उपलब्धि की जो सहज तीखी आँच मुझमें
उन कँटीली झाड़ियों में उलझ जाता चाँद चंचल
+
क्या करूँ
 
+
जो शम्भु धनु टूटा तुम्हारा
चाँदनी की रैन चिड़िया गंध कलियों पर उतरती
+
तोड़ने को मैं विवश हूँ।
मूँद लेती नैन गोरे पाँख धीरे बंद करती
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गंध घोड़े पर चढ़ी दुलकी चली आती हवाएँ
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टाप हल्के पड़ें जल में गोल लहरें उछल आएँ
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सो रहा बन ढूह सोते ताल सोता तीर सोते
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प्रेतवाले पेड़ सोते सात तल के नीर सोते
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ऊँघती है रूँध करवट ले रही है घास ऊँची
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मौन दम साधे पड़ी है टोरियों की रास ऊँची
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साँस लेता है बियाबां डोल जातीं सुन्न छाँहें
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हर तरफ गुपचुप खड़ी हैं जनपदों की आत्माएँ
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ताल की है पार ऊँची उतर गलियारा गया है
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नीम, कंजी, इमलियों में निकल बंजारा गया है
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बीच पेड़ों की कटन में हैं पड़े दो चार छप्पर
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हाँडियाँ, मचिया, कठौते लट्ठ, गूदड़, बैल, बक्खर
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राख, गोबर, चरी, औंगन लेज, रस्सी, हल, कुल्हाड़ी
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सूत की मोटी फतोही चका, हँसिया और गाड़ी
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धुआँ कंडों का सुलगता भौंकता कुत्ता शिकार
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है यहाँ की जिंदगी पर शाप नल का स्याह भारी
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भूख की मनहूस छाया जब कि भोजन सामने हो
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आदमी हो ठीकरे-सा जबकि साधन सामने हो
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धन वनस्पति भरे जंगल और यह जीवन भिखरी
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शाप नल का घूमता है भोथरे हैं हल-कुल्हाड़ी
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हल कि जिसकी नोक से बेजान मिट्टी झूम उठती
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सभ्यता का चाँद खिलता जंगलों की रात मिटती
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आइनों से गाँव होते घर न रहते धूल कूड़ा
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जम न जाता ज़िंदगी पर युगों का इतिहास-घूरा
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मृत्यु-सा सुनसान बनकर जो बनैला प्रेत फिरता
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खाद बन जीवन फसल की लोक मंगल रूप धरता
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रंग मिट्टी का बदलता नीर का सब पाप धुलता
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हरे होते पीत ऊसर स्वस्थ हो जाती मनुजता
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लाल पत्थर, लाल मिट्टी लाल कंकड़, लाल बजरी
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फिर खिलेंगे झाक के वन फिर उठेगी फाग कजरी।
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00:29, 14 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण

जो अंधेरी रात में भभके अचानक
चमक से चकचौंध भर दे
मैं निरंतर पास आता अग्निध्वज हूँ

कड़कड़ाएँ रीढ़
बूढ़ी रूढ़ियों की
झुर्रियाँ काँपें
घुनी अनुभूतियों की
उसी नई आवाज़ की उठती गरज हूँ।

जब उलझ जाएँ
मनस गाँठें घनेरी
बोध की हो जाएँ
सब गलियाँ अंधेरी
तर्क और विवेक पर
बेसूझ जाले
मढ़ चुके जब
वैर रत परिपाटियों की
अस्मि ढेरी

जब न युग के पास रहे उपाय तीजा
तब अछूती मंज़िलों की ओर
मैं उठता कदम हूँ।

जब कि समझौता
जीने की निपट अनिवार्यता हो
परम अस्वीकार की
झुकने न वाली मैं कसम हूँ।

हो चुके हैं
सभी प्रश्नों के सभी उत्तर पुराने
खोखले हैं
व्यक्ति और समूह वाले
आत्मविज्ञापित ख़जाने
पड़ गए झूठे समन्वय
रह न सका तटस्थ कोई
वे सुरक्षा की नक़ाबें
मार्ग मध्यम के बहाने
हूँ प्रताड़ित
क्योंकि प्रश्नों के नए उत्तर दिए हैं
है परम अपराध
क्योंकि मैं लीक से इतना अलग हूँ।

सब छिपाते थे सच्चाई
जब तुरत ही सिद्धियों से
असलियत को स्थगित करते
भाग जाते उत्तरों से
कला थी सुविधा परस्ती
मूल्य केवल मस्लहत थे
मूर्ख थी निष्ठा
प्रतिष्ठा सुलभ थी आडम्बरों से
क्या करूँ
उपलब्धि की जो सहज तीखी आँच मुझमें
क्या करूँ
जो शम्भु धनु टूटा तुम्हारा
तोड़ने को मैं विवश हूँ।