भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"दिल्ली (कविता) / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
छो |
छो (दिल्ली / रामधारी सिंह "दिनकर" का नाम बदलकर दिल्ली (कविता) / रामधारी सिंह "दिनकर" कर दिया गया है) |
||
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार= रामधारी सिंह "दिनकर" | |रचनाकार= रामधारी सिंह "दिनकर" | ||
− | }}यह कैसी चांदनी अम के मलिन तमिस्र गगन में | + | }} |
− | + | {{KKCatKavita}} | |
− | + | <poem> | |
− | कूक रही क्यों नियति | + | यह कैसी चांदनी अम के मलिन तमिस्र गगन में |
− | + | कूक रही क्यों नियति व्यंग से इस गोधूलि-लगन में ? | |
− | + | ||
− | + | ||
+ | मरघट में तू साज रही दिल्ली कैसे श्रृंगार? | ||
यह बहार का स्वांग अरी इस उजड़े चमन में! | यह बहार का स्वांग अरी इस उजड़े चमन में! | ||
− | + | इस उजाड़ निर्जन खंडहर में | |
− | इस उजाड़ | + | छिन्न-भिन्न उजड़े इस घर मे |
− | + | ||
− | + | ||
− | छिन्न भिन्न उजड़े इस घर मे | + | |
− | + | ||
तुझे रूप सजाने की सूझी | तुझे रूप सजाने की सूझी | ||
− | + | इस सत्यानाश प्रहर में ! | |
− | + | ||
− | इस सत्यानाश प्रहर में! | + | |
− | + | ||
− | + | ||
+ | डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया-तराना, | ||
और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना; | और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना; | ||
हम धोते हैं घाव इधर सतलज के शीतल जल से, | हम धोते हैं घाव इधर सतलज के शीतल जल से, | ||
− | |||
उधर तुझे भाता है इनपर नमक हाय, छिड़काना ! | उधर तुझे भाता है इनपर नमक हाय, छिड़काना ! | ||
महल कहां बस, हमें सहारा | महल कहां बस, हमें सहारा | ||
− | |||
केवल फ़ूस-फ़ास, तॄणदल का; | केवल फ़ूस-फ़ास, तॄणदल का; | ||
अन्न नहीं, अवलम्ब प्राण का | अन्न नहीं, अवलम्ब प्राण का | ||
− | + | गम, आँसू या गंगाजल का; | |
− | गम, | + | </poem> |
21:00, 3 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
यह कैसी चांदनी अम के मलिन तमिस्र गगन में
कूक रही क्यों नियति व्यंग से इस गोधूलि-लगन में ?
मरघट में तू साज रही दिल्ली कैसे श्रृंगार?
यह बहार का स्वांग अरी इस उजड़े चमन में!
इस उजाड़ निर्जन खंडहर में
छिन्न-भिन्न उजड़े इस घर मे
तुझे रूप सजाने की सूझी
इस सत्यानाश प्रहर में !
डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया-तराना,
और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना;
हम धोते हैं घाव इधर सतलज के शीतल जल से,
उधर तुझे भाता है इनपर नमक हाय, छिड़काना !
महल कहां बस, हमें सहारा
केवल फ़ूस-फ़ास, तॄणदल का;
अन्न नहीं, अवलम्ब प्राण का
गम, आँसू या गंगाजल का;