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19:53, 4 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
राह हारी मैं न हारा
थक गए पथ धूल के
उड़ते हुए रज-कण घनेरे।
पर न अब तक मिट सके हैं,
वायु में पदचिन्ह मेरे।
जो प्रकृति के जन्म ही से ले चुके गति का सहारा।
राह हारी मैं न हारा
स्वप्न-मग्ना रात्रि सोई,
दिवस संध्या के किनारे।
थक गए वन-विहग, मृगतरु-
थके सूरज-चाँद-तारे।
पर न अब तक थका मेरे लक्ष्य का ध्रुव ध्येय तारा।
राह हारी मैं न हारा।