"दान / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" |संग्रह=अनामिका / सू...) |
|||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 10: | पंक्ति 10: | ||
चुम्बित, सस्मित, कुंचित, कोमल | चुम्बित, सस्मित, कुंचित, कोमल | ||
तरुणियों सदृश किरणें चंचल; | तरुणियों सदृश किरणें चंचल; | ||
− | |||
किसलयों के अधर यौवन-मद | किसलयों के अधर यौवन-मद | ||
रक्ताभ; मज्जु उड़ते षट्पद। | रक्ताभ; मज्जु उड़ते षट्पद। | ||
+ | |||
खुलती कलियों से कलियों पर | खुलती कलियों से कलियों पर | ||
नव आशा--नवल स्पन्द भर भर; | नव आशा--नवल स्पन्द भर भर; | ||
पंक्ति 24: | पंक्ति 24: | ||
नतवदना मधुमाधवी अतुल; | नतवदना मधुमाधवी अतुल; | ||
+ | निकला पहला अरविन्द आज, | ||
+ | देखता अनिन्द्य रहस्य-साज; | ||
+ | सौरभ-वसना समीर बहती, | ||
+ | कानों में प्राणों की कहती; | ||
+ | गोमती क्षीण-कटि नटी नवल, | ||
+ | नृत्यपर मधुर-आवेश-चपल। | ||
+ | |||
+ | मैं प्तातः पर्यटनार्थ चला | ||
+ | लौटा, आ पुल पर खड़ा हुआ; | ||
+ | सोचा--"विश्व का नियम निश्चल, | ||
+ | जो जैसा, उसको वैसा फल | ||
+ | देती यह प्रकृति स्वयं सदया, | ||
+ | सोचने को न कुछ रहा नया; | ||
+ | सौन्दर्य, गीत, बहु वर्ण, गन्ध, | ||
+ | भाषा, भावों के छन्द-बन्ध, | ||
+ | और भी उच्चतर जो विलास, | ||
+ | प्राकृतिक दान वे, सप्रयास | ||
+ | या अनायास आते हैं सब, | ||
+ | सब में है श्रेष्ठ, धन्य, मानव।" | ||
+ | |||
+ | फिर देखा, उस पुल के ऊपर | ||
+ | बहु संख्यक बैठे हैं वानर। | ||
+ | एक ओर पथ के, कृष्णकाय | ||
+ | कंकालशेष नर मृत्यु-प्राय | ||
+ | बैठा सशरीर दैन्य दुर्बल, | ||
+ | भिक्षा को उठी दृष्टि निश्चल; | ||
+ | अति क्षीण कण्ठ, है तीव्र श्वास, | ||
+ | जीता ज्यों जीवन से उदास। | ||
+ | |||
+ | ढोता जो वह, कौन सा शाप? | ||
+ | भोगता कठिन, कौन सा पाप? | ||
+ | यह प्रश्न सदा ही है पथ पर, | ||
+ | पर सदा मौन इसका उत्तर! | ||
+ | जो बडी दया का उदाहरण, | ||
+ | वह पैसा एक, उपायकरण! | ||
+ | मैंने झुक नीचे को देखा, | ||
+ | तो झलकी आशा की रेखा:- | ||
+ | विप्रवर स्नान कर चढ़ा सलिल | ||
+ | शिव पर दूर्वादल, तण्डुल, तिल, | ||
+ | लेकर झोली आये ऊपर, | ||
+ | देखकर चले तत्पर वानर। | ||
+ | द्विज राम-भक्त, भक्ति की आश | ||
+ | भजते शिव को बारहों मास; | ||
+ | कर रामायण का पारायण | ||
+ | जपते हैं श्रीमन्नारायण; | ||
+ | दुख पाते जब होते अनाथ, | ||
+ | कहते कपियों से जोड़ हाथ, | ||
+ | मेरे पड़ोस के वे सज्जन, | ||
+ | करते प्रतिदिन सरिता-मज्जन; | ||
+ | झोली से पुए निकाल लिये, | ||
+ | बढ़ते कपियों के हाथ दिये; | ||
+ | देखा भी नहीं उधर फिर कर | ||
+ | जिस ओर रहा वह भिक्षु इतर; | ||
+ | चिल्लाया किया दूर दानव, | ||
+ | बोला मैं--"धन्य श्रेष्ठ मानव!" | ||
</poem> | </poem> |
19:56, 8 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
वासन्ती की गोद में तरुण,
सोहता स्वस्थ-मुख बालारुण;
चुम्बित, सस्मित, कुंचित, कोमल
तरुणियों सदृश किरणें चंचल;
किसलयों के अधर यौवन-मद
रक्ताभ; मज्जु उड़ते षट्पद।
खुलती कलियों से कलियों पर
नव आशा--नवल स्पन्द भर भर;
व्यंजित सुख का जो मधु-गुंजन
वह पुंजीकृत वन-वन उपवन;
हेम-हार पहने अमलतास,
हँसता रक्ताम्बर वर पलास;
कुन्द के शेष पूजार्ध्यदान,
मल्लिका प्रथम-यौवन-शयान;
खुलते-स्तबकों की लज्जाकुल
नतवदना मधुमाधवी अतुल;
निकला पहला अरविन्द आज,
देखता अनिन्द्य रहस्य-साज;
सौरभ-वसना समीर बहती,
कानों में प्राणों की कहती;
गोमती क्षीण-कटि नटी नवल,
नृत्यपर मधुर-आवेश-चपल।
मैं प्तातः पर्यटनार्थ चला
लौटा, आ पुल पर खड़ा हुआ;
सोचा--"विश्व का नियम निश्चल,
जो जैसा, उसको वैसा फल
देती यह प्रकृति स्वयं सदया,
सोचने को न कुछ रहा नया;
सौन्दर्य, गीत, बहु वर्ण, गन्ध,
भाषा, भावों के छन्द-बन्ध,
और भी उच्चतर जो विलास,
प्राकृतिक दान वे, सप्रयास
या अनायास आते हैं सब,
सब में है श्रेष्ठ, धन्य, मानव।"
फिर देखा, उस पुल के ऊपर
बहु संख्यक बैठे हैं वानर।
एक ओर पथ के, कृष्णकाय
कंकालशेष नर मृत्यु-प्राय
बैठा सशरीर दैन्य दुर्बल,
भिक्षा को उठी दृष्टि निश्चल;
अति क्षीण कण्ठ, है तीव्र श्वास,
जीता ज्यों जीवन से उदास।
ढोता जो वह, कौन सा शाप?
भोगता कठिन, कौन सा पाप?
यह प्रश्न सदा ही है पथ पर,
पर सदा मौन इसका उत्तर!
जो बडी दया का उदाहरण,
वह पैसा एक, उपायकरण!
मैंने झुक नीचे को देखा,
तो झलकी आशा की रेखा:-
विप्रवर स्नान कर चढ़ा सलिल
शिव पर दूर्वादल, तण्डुल, तिल,
लेकर झोली आये ऊपर,
देखकर चले तत्पर वानर।
द्विज राम-भक्त, भक्ति की आश
भजते शिव को बारहों मास;
कर रामायण का पारायण
जपते हैं श्रीमन्नारायण;
दुख पाते जब होते अनाथ,
कहते कपियों से जोड़ हाथ,
मेरे पड़ोस के वे सज्जन,
करते प्रतिदिन सरिता-मज्जन;
झोली से पुए निकाल लिये,
बढ़ते कपियों के हाथ दिये;
देखा भी नहीं उधर फिर कर
जिस ओर रहा वह भिक्षु इतर;
चिल्लाया किया दूर दानव,
बोला मैं--"धन्य श्रेष्ठ मानव!"