{{KKRachna
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
|संग्रह=स्वर्णधूलि / सुमित्रानंदन पंत
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सुनता हूँ, मैंने भी देखा,
काले बादल में रहती चाँदी की रेखा!
:काले बादल जाति द्वेष के,:काले बादल विश्व क्लेश के,:काले बादल उठते पथ पर:नव स्वतंत्रता के प्रवेश के!
सुनता आया हूँ, है देखा,
काले बादल में हँसती चाँदी की रेखा!
:आज दिशा है हैं घोर अँधेरी:नभ में गरज रही रण भेरी,:चमक रही चपला क्षण-क्षण पर:झनक रही झिल्ली झन-झन कर;!
नाच-नाच आँगन में गाते केकी-केका
काले बादल में लहरी चाँदी की रेखा।
:काले बादल, काले बादल,:मन भय से हो उठता चंचल!:कौन हृदय में कहता पल पलपलपल:मृत्यु आ रही साजे दलबल!
आग लग रही, घात चल रहे, विधि का लेखा!
काले बादल में छिपती चाँदी की रेखा!
:मुझे मृत्यु की भीति नहीं है,:पर अनीति से प्रीति नहीं है,:यह मनुजोचित रीति नहीं है,:जन में प्रीति प्रतीति नहीं है!
:देश जातियों का कब होगा,:नव मानवता में रे एका,:काले बादल में कल की, ::सोने की रेखा!
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