Last modified on 24 जनवरी 2020, at 16:42

"दरवाज़ा / अनामिका" के अवतरणों में अंतर

 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=अनामिका
 
|रचनाकार=अनामिका
|संग्रह=
+
|संग्रह=अनुष्टुप / अनामिका
 
}}
 
}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 +
{{KKCatStreeVimarsh}}
 
<poem>
 
<poem>
 
मैं एक दरवाज़ा थी  
 
मैं एक दरवाज़ा थी  

16:42, 24 जनवरी 2020 के समय का अवतरण

मैं एक दरवाज़ा थी
मुझे जितना पीटा गया
मैं उतना ही खुलती गई।
अंदर आए आने वाले तो देखा–
चल रहा है एक वृहत्चक्र–
चक्की रुकती है तो चरखा चलता है
चरखा रुकता है तो चलती है कैंची-सुई
गरज यह कि चलता ही रहता है
अनवरत कुछ-कुछ !
... और अन्त में सब पर चल जाती है झाड़ू
तारे बुहारती हुई
बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर–
सृष्टि के सब टूटे-बिखरे कतरे जो
एक टोकरी में जमा करती जाती है
मन की दुछत्ती पर।