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"मौसम की चोट / उर्मिलेश" के अवतरणों में अंतर

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चोट मौसम ने दी कुछ इस तरह गहरी हमको।
 
चोट मौसम ने दी कुछ इस तरह गहरी हमको।
 
 
अब तो हर सुबह भी लगती है दुपहरी हमको।।
 
अब तो हर सुबह भी लगती है दुपहरी हमको।।
 
  
 
काम करते नहीं बच्चे भी बिना रिश्वत के।
 
काम करते नहीं बच्चे भी बिना रिश्वत के।
 
 
अपना घर लगने लगा अब तो कचहरी हमको।।
 
अपना घर लगने लगा अब तो कचहरी हमको।।
 
  
 
अब तो बहिनें भी ग़रीबी में हमें भूल गईं।
 
अब तो बहिनें भी ग़रीबी में हमें भूल गईं।
 
 
राखियाँ कौन भला भेजे सुनहरी हमको।।
 
राखियाँ कौन भला भेजे सुनहरी हमको।।
 
  
 
हमने पढ़-लिखके फ़कत इतना हुनर सीखा है।
 
हमने पढ़-लिखके फ़कत इतना हुनर सीखा है।
 
 
अपनी माँ भी नज़र आने लगी महरी हमको।।
 
अपनी माँ भी नज़र आने लगी महरी हमको।।
 
  
 
होंठ अब उसके भी इंचों में हँसा करते हैं।
 
होंठ अब उसके भी इंचों में हँसा करते हैं।
 
 
उसकी सोहबत न बना दे कहीं शहरी हमको।।
 
उसकी सोहबत न बना दे कहीं शहरी हमको।।
 
  
 
डिगरियाँ देखके अपने ही सगे भाई की।
 
डिगरियाँ देखके अपने ही सगे भाई की।
 
 
ये व्यवस्था भी नज़र आती है बहरी हमको।।
 
ये व्यवस्था भी नज़र आती है बहरी हमको।।
 
  
 
धीरे-धीरे जो कुतरते हैं हमारे दिल को।
 
धीरे-धीरे जो कुतरते हैं हमारे दिल को।
 
 
याद उन रिश्तों की लगती है गिलहरी हमको।।
 
याद उन रिश्तों की लगती है गिलहरी हमको।।
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20:40, 13 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

चोट मौसम ने दी कुछ इस तरह गहरी हमको।
अब तो हर सुबह भी लगती है दुपहरी हमको।।

काम करते नहीं बच्चे भी बिना रिश्वत के।
अपना घर लगने लगा अब तो कचहरी हमको।।

अब तो बहिनें भी ग़रीबी में हमें भूल गईं।
राखियाँ कौन भला भेजे सुनहरी हमको।।

हमने पढ़-लिखके फ़कत इतना हुनर सीखा है।
अपनी माँ भी नज़र आने लगी महरी हमको।।

होंठ अब उसके भी इंचों में हँसा करते हैं।
उसकी सोहबत न बना दे कहीं शहरी हमको।।

डिगरियाँ देखके अपने ही सगे भाई की।
ये व्यवस्था भी नज़र आती है बहरी हमको।।

धीरे-धीरे जो कुतरते हैं हमारे दिल को।
याद उन रिश्तों की लगती है गिलहरी हमको।।