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"अक़्स-ए-ख़ुशबू हूँ / परवीन शाकिर" के अवतरणों में अंतर
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और बिखर जाऊँ तो, मुझ को न समेटे कोई | और बिखर जाऊँ तो, मुझ को न समेटे कोई | ||
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इस तरह से, कभी टूट कर, बिखरे कोई | इस तरह से, कभी टूट कर, बिखरे कोई | ||
− | अब तो इस राह से वो शख़्स | + | अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं |
− | अब किस उम्मीद | + | अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई |
कोई आहट, कोई आवाज़, कोई छाप नहीं | कोई आहट, कोई आवाज़, कोई छाप नहीं | ||
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान है आए कोई | दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान है आए कोई | ||
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07:14, 27 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
अक़्स-ए-ख़ुशबू हूँ, बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो, मुझ को न समेटे कोई
काँप उठती हूँ मैं सोच कर तन्हाई में
मेरे चेहरे पर तेरा नाम न पढ़ ले कोई
जिस तरह ख़्वाब हो गए मेरे रेज़ा-रेज़ा
इस तरह से, कभी टूट कर, बिखरे कोई
अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई
कोई आहट, कोई आवाज़, कोई छाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान है आए कोई