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"वे और हम / कैलाश गौतम" के अवतरणों में अंतर

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स्वयं विचरते रहे सदा स्वच्छन्द दिशाओं में
 
स्वयं विचरते रहे सदा स्वच्छन्द दिशाओं में
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हम सबको उलझाए रक्खा नीति-कथाओं में ।
  
हम सबको उलझाये रक्खा नीति-कथाओं में।
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हर पीढ़ी में छले गए हम
 
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गुरुओं-प्रभुओं से
 
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जीए भी तो इनके ही
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घुट-घुट कर रह गई हमारी चीख़ गुफ़ाओं में ।
  
जीये भी तो इनके ही
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इन्हीं महंतों-संतों ने  
 
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कठघरा बनाया है
 
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पाप-पुण्य औ स्वर्ग-नरक
 
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इनकी ही माया है
 
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अपने रहते प्रावधान से ये धाराओं में ।
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हम होते हैं हवन  
 
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और ये होता होते हैं
 
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कान फूँकते जहाँ
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वहाँ हम श्रोता होते हैं
 
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जनम-जनम यजमान सरीखे हम अध्यायों में ।
वहां हम श्रोता होते हैं
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जैसे गोरे वैसे काले
 
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कोई फ़र्क़ नहीं
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तर्क-वितर्क नहीं
 
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कभी नहीं बर्दाश्त इन्हें अपनी सुविधाओं में ।
कभी नहीं बर्दाश्त इन्हें अपनी सुविधाओं में।
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</poem>

13:31, 4 जनवरी 2011 के समय का अवतरण

स्वयं विचरते रहे सदा स्वच्छन्द दिशाओं में
हम सबको उलझाए रक्खा नीति-कथाओं में ।

हर पीढ़ी में छले गए हम
गुरुओं-प्रभुओं से
जीए भी तो इनके ही
खूँटे पर पशुओं से
घुट-घुट कर रह गई हमारी चीख़ गुफ़ाओं में ।

इन्हीं महंतों-संतों ने
कठघरा बनाया है
पाप-पुण्य औ स्वर्ग-नरक
इनकी ही माया है
अपने रहते प्रावधान से ये धाराओं में ।

हम होते हैं हवन
और ये होता होते हैं
कान फूँकते जहाँ
वहाँ हम श्रोता होते हैं
जनम-जनम यजमान सरीखे हम अध्यायों में ।

जैसे गोरे वैसे काले
कोई फ़र्क़ नहीं
सुनते जाओ करते जाओ
तर्क-वितर्क नहीं
कभी नहीं बर्दाश्त इन्हें अपनी सुविधाओं में ।