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"पौरुष सिमट रहा है / रमा द्विवेदी" के अवतरणों में अंतर

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मोह का कोहरा कुछ इस क़दर छाने लगा है।
उसके ही आस-पास पौरुष सिमट रहा है॥<br><br>
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इंसान जहां से बौना नज़र आने लगा है॥
संकीर्णता विचारों की इस क़दर ब़ढने लगी है।<br>
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इक्कीसवीं सदी में मानव कुछ ऐसा क़हर ढ़ाएगा।
मोह का कोहरा कुछ इस क़दर छाने लगा है।<br>
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इंसान जहां से बौना नज़र आने लगा है॥<br><br>
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इक्कीसवीं सदी में मानव कुछ ऐसा क़हर ढ़ाएगा।<br>
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चांद तो क्या वो धरती से भी उख़ड जाएगा॥<br><br>
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22:04, 26 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

प्रेयसी का आज बादल उम़ड रहा है।
उसके ही आस-पास पौरुष सिमट रहा है॥

संकीर्णता विचारों की इस क़दर ब़ढने लगी है।
जाने-पहचाने चेहरों में ही वो सिमटने लगी है॥

मोह का कोहरा कुछ इस क़दर छाने लगा है।
इंसान जहां से बौना नज़र आने लगा है॥

इक्कीसवीं सदी में मानव कुछ ऐसा क़हर ढ़ाएगा।
चांद तो क्या वो धरती से भी उख़ड जाएगा॥