भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"पौरुष सिमट रहा है / रमा द्विवेदी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Ramadwivedi (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रमा द्विवेदी}} प्रेयसी का आज बादल उम़ड रहा …) |
|||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | {{KKGlobal}} | |
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=रमा द्विवेदी | ||
+ | }} | ||
+ | {{KKCatKavita}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | प्रेयसी का आज बादल उम़ड रहा है। | ||
+ | उसके ही आस-पास पौरुष सिमट रहा है॥ | ||
− | + | संकीर्णता विचारों की इस क़दर ब़ढने लगी है। | |
+ | जाने-पहचाने चेहरों में ही वो सिमटने लगी है॥ | ||
− | + | मोह का कोहरा कुछ इस क़दर छाने लगा है। | |
− | + | इंसान जहां से बौना नज़र आने लगा है॥ | |
− | + | ||
− | + | इक्कीसवीं सदी में मानव कुछ ऐसा क़हर ढ़ाएगा। | |
− | मोह का कोहरा कुछ इस क़दर छाने लगा है। | + | चांद तो क्या वो धरती से भी उख़ड जाएगा॥ |
− | इंसान जहां से बौना नज़र आने लगा है॥ | + | </poem> |
− | इक्कीसवीं सदी में मानव कुछ ऐसा क़हर ढ़ाएगा। | + | |
− | चांद तो क्या वो धरती से भी उख़ड जाएगा॥< | + |
22:04, 26 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
प्रेयसी का आज बादल उम़ड रहा है।
उसके ही आस-पास पौरुष सिमट रहा है॥
संकीर्णता विचारों की इस क़दर ब़ढने लगी है।
जाने-पहचाने चेहरों में ही वो सिमटने लगी है॥
मोह का कोहरा कुछ इस क़दर छाने लगा है।
इंसान जहां से बौना नज़र आने लगा है॥
इक्कीसवीं सदी में मानव कुछ ऐसा क़हर ढ़ाएगा।
चांद तो क्या वो धरती से भी उख़ड जाएगा॥