Last modified on 17 दिसम्बर 2009, at 13:36

"सुख-दुख / नरेन्द्र शर्मा" के अवतरणों में अंतर

छो (सुख-दुख /नरेन्द्र शर्मा का नाम बदलकर सुख-दुख / नरेन्द्र शर्मा कर दिया गया है)
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
}}
 
}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
{{KKCatNavGeet}}
+
{{KKCatNavgeet}}
 
<poem>
 
<poem>
 
जब तक मन में दुर्बलता है
 
जब तक मन में दुर्बलता है

13:36, 17 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

जब तक मन में दुर्बलता है
दुख से दुख, सुख से ममता है।

पर सदा न रहता जग में सुख
रहता सदा न जीवन में दुख।
छाया-से माया-से दोनों
आने-जाने हैं ये सुख-दुख।

मन भरता मन, पर क्या इनसे
आत्मा का अभाव भरता है!

बहुत नाज था अपने सुख पर
पर न टिका दो दिन सुख-वैभव,
दुख? दुख को भी समझा सागर
एक बूँद भी नहीं रहा अब!

देखा जब दिन-रात चीड़-वन
नित कराह आहें भरता है!

मैंने दुख-कातर हो-होकर
जब-जब दर-दर कर फैलाया,
सुख के अभिलाषी मन मेरे
तब-तब सदा निरादर पाया।

ठोकर खा-खाकर पाया है
दुख का कारण कायरता है।

सुख भी नश्वर, दुख भी नश्वर
यद्यपि सुख-दुख सबके साथी,
कौन घुले फिर सोच-फिकर में
आज घड़ी क्या है, कल क्या थी।

देख तोड़ सीमायें अपनी
जोगी नित निर्भय रमता है।

जब तक तन है, आधि-व्याधि है
जब तक मन, सुख दुख है घेरे;
तू निर्बल तो क्रीत भृत्य है,
तू चाहे ये तेरे चेरे।

तू इनसे पानी भरवा, भर
ज्ञान कूप, तुझमें क्षमता है।

सुख दुख के पिंजर में बंदी
कीर धुन रहा सिर बेचारा,
सुख दुख के दो तीर चीर कर
बहती नित गंगा की धारा।

तेरा जी चाहे जो बन ले,
तू अपना करता-हरता है।