Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
|||
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 9 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत | |रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत | ||
− | |संग्रह=युगांत / सुमित्रानंदन पंत | + | |संग्रह=युगांत / सुमित्रानंदन पंत; पल्लविनी / सुमित्रानंदन पंत |
}} | }} | ||
− | {{ | + | {{KKCatKavita}} |
+ | {{KKPrasiddhRachna}} | ||
+ | {{KKAnthologyGandhi}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | तुम मांस-हीन, तुम | + | तुम मांस-हीन, तुम रक्तहीन, |
− | हे अस्थि-शेष! तुम | + | हे अस्थि-शेष! तुम अस्थिहीन, |
तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा केवल, | तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा केवल, | ||
हे चिर पुराण, हे चिर नवीन! | हे चिर पुराण, हे चिर नवीन! | ||
तुम पूर्ण इकाई जीवन की, | तुम पूर्ण इकाई जीवन की, | ||
जिसमें असार भव-शून्य लीन; | जिसमें असार भव-शून्य लीन; | ||
− | आधार अमर, होगी | + | आधार अमर, होगी जिस पर |
भावी की संस्कृति समासीन! | भावी की संस्कृति समासीन! | ||
− | ::तुम मांस, तुम्ही हो रक्त-अस्थि, | + | ::तुम मांस, तुम्ही हो रक्त-अस्थि, |
::निर्मित जिनसे नवयुग का तन, | ::निर्मित जिनसे नवयुग का तन, | ||
::तुम धन्य! तुम्हारा नि:स्व-त्याग | ::तुम धन्य! तुम्हारा नि:स्व-त्याग | ||
पंक्ति 24: | पंक्ति 26: | ||
सदियों का दैन्य-तमिस्र तूम, | सदियों का दैन्य-तमिस्र तूम, | ||
धुन तुमने कात प्रकाश-सूत, | धुन तुमने कात प्रकाश-सूत, | ||
− | हे नग्न! नग्न-पशुता | + | हे नग्न! नग्न-पशुता ढँक दी |
बुन नव संस्कृत मनुजत्व पूत। | बुन नव संस्कृत मनुजत्व पूत। | ||
जग पीड़ित छूतों से प्रभूत, | जग पीड़ित छूतों से प्रभूत, | ||
छू अमित स्पर्श से, हे अछूत! | छू अमित स्पर्श से, हे अछूत! | ||
− | तुमने पावन कर, मुक्त | + | तुमने पावन कर, मुक्त किए |
मृत संस्कृतियों के विकृत भूत! | मृत संस्कृतियों के विकृत भूत! | ||
::सुख-भोग खोजने आते सब, | ::सुख-भोग खोजने आते सब, | ||
पंक्ति 58: | पंक्ति 60: | ||
गुंजित कर दिया गगन जग का | गुंजित कर दिया गगन जग का | ||
भर तुमने आत्मा का निनाद। | भर तुमने आत्मा का निनाद। | ||
− | + | रंग-रंग खद्दर के सूत्रों में | |
− | नव-जीवन-आशा, | + | नव-जीवन-आशा, स्पृह्यालाद, |
मानवी-कला के सूत्रधार! | मानवी-कला के सूत्रधार! | ||
हर लिया यन्त्र-कौशल-प्रवाद। | हर लिया यन्त्र-कौशल-प्रवाद। | ||
+ | ::जड़वाद जर्जरित जग में तुम | ||
+ | ::अवतरित हुए आत्मा महान, | ||
+ | ::यन्त्राभिभूत जग में करने | ||
+ | ::मानव-जीवन का परित्राण; | ||
+ | ::बहु छाया-बिम्बों में खोया | ||
+ | ::पाने व्यक्तित्व प्रकाशवान, | ||
+ | ::फिर रक्त-माँस प्रतिमाओं में | ||
+ | ::फूँकने सत्य से अमर प्राण! | ||
+ | संसार छोड़ कर ग्रहण किया | ||
+ | नर-जीवन का परमार्थ-सार, | ||
+ | अपवाद बने, मानवता के | ||
+ | ध्रुव नियमों का करने प्रचार; | ||
+ | हो सार्वजनिकता जयी, अजित! | ||
+ | तुमने निजत्व निज दिया हार, | ||
+ | लौकिकता को जीवित रखने | ||
+ | तुम हुए अलौकिक, हे उदार! | ||
+ | ::मंगल-शशि-लोलुप मानव थे | ||
+ | ::विस्मित ब्रह्मांड-परिधि विलोक, | ||
+ | ::तुम केन्द्र खोजने आये तब | ||
+ | ::सब में व्यापक, गत राग-शोक; | ||
+ | ::पशु-पक्षी-पुष्पों से प्रेरित | ||
+ | ::उद्दाम-काम जन-क्रान्ति रोक, | ||
+ | ::जीवन-इच्छा को आत्मा के | ||
+ | ::वश में रख, शासित किए लोक। | ||
+ | था व्याप्त दिशावधि ध्वान्त भ्रान्त | ||
+ | इतिहास विश्व-उद्भव प्रमाण, | ||
+ | बहु-हेतु, बुद्धि, जड़ वस्तु-वाद | ||
+ | मानव-संस्कृति के बने प्राण; | ||
+ | थे राष्ट्र, अर्थ, जन, साम्य-वाद | ||
+ | छल सभ्य-जगत के शिष्ट-मान, | ||
+ | भू पर रहते थे मनुज नहीं, | ||
+ | बहु रूढि-रीति प्रेतों-समान-- | ||
+ | ::तुम विश्व मंच पर हुए उदित | ||
+ | ::बन जग-जीवन के सूत्रधार, | ||
+ | ::पट पर पट उठा दिए मन से | ||
+ | ::कर नव चरित्र का नवोद्धार; | ||
+ | ::आत्मा को विषयाधार बना, | ||
+ | ::दिशि-पल के दृश्यों को सँवार, | ||
+ | ::गा-गा--एकोहं बहु स्याम, | ||
+ | ::हर लिए भेद, भव-भीति-भार! | ||
+ | एकता इष्ट निर्देश किया, | ||
+ | जग खोज रहा था जब समता, | ||
+ | अन्तर-शासन चिर राम-राज्य, | ||
+ | औ’ वाह्य, आत्महन-अक्षमता; | ||
+ | हों कर्म-निरत जन, राग-विरत, | ||
+ | रति-विरति-व्यतिक्रम भ्रम-ममता, | ||
+ | प्रतिक्रिया-क्रिया साधन-अवयव, | ||
+ | है सत्य सिद्ध, गति-यति-क्षमता। | ||
+ | ::ये राज्य, प्रजा, जन, साम्य-तन्त्र | ||
+ | ::शासन-चालन के कृतक यान, | ||
+ | ::मानस, मानुषी, विकास-शास्त्र | ||
+ | ::हैं तुलनात्मक, सापेक्ष ज्ञान; | ||
+ | ::भौतिक विज्ञानों की प्रसूति | ||
+ | ::जीवन-उपकरण-चयन-प्रधान, | ||
+ | ::मथ सूक्ष्म-स्थूल जग, बोले तुम-- | ||
+ | ::मानव मानवता का विधान! | ||
+ | साम्राज्यवाद था कंस, बन्दिनी | ||
+ | मानवता पशु-बलाक्रान्त, | ||
+ | श्रृंखला दासता, प्रहरी बहु | ||
+ | निर्मम शासन-पद शक्ति-भ्रान्त; | ||
+ | कारा-गृह में दे दिव्य जन्म | ||
+ | मानव-आत्मा को मुक्त, कान्त, | ||
+ | जन-शोषण की बढ़ती यमुना | ||
+ | तुमने की नत-पद-प्रणत, शान्त! | ||
+ | ::कारा थी संस्कृति विगत, भित्ति | ||
+ | ::बहु धर्म-जाति-गत रूप-नाम, | ||
+ | ::बन्दी जग-जीवन, भू-विभक्त, | ||
+ | ::विज्ञान-मूढ़ जन प्रकृति-काम; | ||
+ | ::आए तुम मुक्त पुरुष, कहने-- | ||
+ | ::मिथ्या जड़-बन्धन, सत्य राम, | ||
+ | ::नानृतं जयति सत्यं, मा भैः | ||
+ | ::जय ज्ञान-ज्योति, तुमको प्रणाम! | ||
− | + | '''रचनाकाल: अप्रैल’१९३६''' | |
− | + | ||
− | '''रचनाकाल: | + | |
</poem> | </poem> |
13:00, 7 नवम्बर 2014 के समय का अवतरण
तुम मांस-हीन, तुम रक्तहीन,
हे अस्थि-शेष! तुम अस्थिहीन,
तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा केवल,
हे चिर पुराण, हे चिर नवीन!
तुम पूर्ण इकाई जीवन की,
जिसमें असार भव-शून्य लीन;
आधार अमर, होगी जिस पर
भावी की संस्कृति समासीन!
तुम मांस, तुम्ही हो रक्त-अस्थि,
निर्मित जिनसे नवयुग का तन,
तुम धन्य! तुम्हारा नि:स्व-त्याग
है विश्व-भोग का वर साधन।
इस भस्म-काम तन की रज से
जग पूर्ण-काम नव जग-जीवन
बीनेगा सत्य-अहिंसा के
ताने-बानों से मानवपन!
सदियों का दैन्य-तमिस्र तूम,
धुन तुमने कात प्रकाश-सूत,
हे नग्न! नग्न-पशुता ढँक दी
बुन नव संस्कृत मनुजत्व पूत।
जग पीड़ित छूतों से प्रभूत,
छू अमित स्पर्श से, हे अछूत!
तुमने पावन कर, मुक्त किए
मृत संस्कृतियों के विकृत भूत!
सुख-भोग खोजने आते सब,
आये तुम करने सत्य खोज,
जग की मिट्टी के पुतले जन,
तुम आत्मा के, मन के मनोज!
जड़ता, हिंसा, स्पर्धा में भर
चेतना, अहिंसा, नम्र-ओज,
पशुता का पंकज बना दिया
तुमने मानवता का सरोज!
पशु-बल की कारा से जग को
दिखलाई आत्मा की विमुक्ति,
विद्वेष, घृणा से लड़ने को
सिखलाई दुर्जय प्रेम-युक्ति;
वर श्रम-प्रसूति से की कृतार्थ
तुमने विचार-परिणीत उक्ति,
विश्वानुरक्त हे अनासक्त!
सर्वस्व-त्याग को बना भुक्ति!
सहयोग सिखा शासित-जन को
शासन का दुर्वह हरा भार,
होकर निरस्त्र, सत्याग्रह से
रोका मिथ्या का बल-प्रहार:
बहु भेद-विग्रहों में खोई
ली जीर्ण जाति क्षय से उबार,
तुमने प्रकाश को कह प्रकाश,
औ अन्धकार को अन्धकार।
उर के चरखे में कात सूक्ष्म
युग-युग का विषय-जनित विषाद,
गुंजित कर दिया गगन जग का
भर तुमने आत्मा का निनाद।
रंग-रंग खद्दर के सूत्रों में
नव-जीवन-आशा, स्पृह्यालाद,
मानवी-कला के सूत्रधार!
हर लिया यन्त्र-कौशल-प्रवाद।
जड़वाद जर्जरित जग में तुम
अवतरित हुए आत्मा महान,
यन्त्राभिभूत जग में करने
मानव-जीवन का परित्राण;
बहु छाया-बिम्बों में खोया
पाने व्यक्तित्व प्रकाशवान,
फिर रक्त-माँस प्रतिमाओं में
फूँकने सत्य से अमर प्राण!
संसार छोड़ कर ग्रहण किया
नर-जीवन का परमार्थ-सार,
अपवाद बने, मानवता के
ध्रुव नियमों का करने प्रचार;
हो सार्वजनिकता जयी, अजित!
तुमने निजत्व निज दिया हार,
लौकिकता को जीवित रखने
तुम हुए अलौकिक, हे उदार!
मंगल-शशि-लोलुप मानव थे
विस्मित ब्रह्मांड-परिधि विलोक,
तुम केन्द्र खोजने आये तब
सब में व्यापक, गत राग-शोक;
पशु-पक्षी-पुष्पों से प्रेरित
उद्दाम-काम जन-क्रान्ति रोक,
जीवन-इच्छा को आत्मा के
वश में रख, शासित किए लोक।
था व्याप्त दिशावधि ध्वान्त भ्रान्त
इतिहास विश्व-उद्भव प्रमाण,
बहु-हेतु, बुद्धि, जड़ वस्तु-वाद
मानव-संस्कृति के बने प्राण;
थे राष्ट्र, अर्थ, जन, साम्य-वाद
छल सभ्य-जगत के शिष्ट-मान,
भू पर रहते थे मनुज नहीं,
बहु रूढि-रीति प्रेतों-समान--
तुम विश्व मंच पर हुए उदित
बन जग-जीवन के सूत्रधार,
पट पर पट उठा दिए मन से
कर नव चरित्र का नवोद्धार;
आत्मा को विषयाधार बना,
दिशि-पल के दृश्यों को सँवार,
गा-गा--एकोहं बहु स्याम,
हर लिए भेद, भव-भीति-भार!
एकता इष्ट निर्देश किया,
जग खोज रहा था जब समता,
अन्तर-शासन चिर राम-राज्य,
औ’ वाह्य, आत्महन-अक्षमता;
हों कर्म-निरत जन, राग-विरत,
रति-विरति-व्यतिक्रम भ्रम-ममता,
प्रतिक्रिया-क्रिया साधन-अवयव,
है सत्य सिद्ध, गति-यति-क्षमता।
ये राज्य, प्रजा, जन, साम्य-तन्त्र
शासन-चालन के कृतक यान,
मानस, मानुषी, विकास-शास्त्र
हैं तुलनात्मक, सापेक्ष ज्ञान;
भौतिक विज्ञानों की प्रसूति
जीवन-उपकरण-चयन-प्रधान,
मथ सूक्ष्म-स्थूल जग, बोले तुम--
मानव मानवता का विधान!
साम्राज्यवाद था कंस, बन्दिनी
मानवता पशु-बलाक्रान्त,
श्रृंखला दासता, प्रहरी बहु
निर्मम शासन-पद शक्ति-भ्रान्त;
कारा-गृह में दे दिव्य जन्म
मानव-आत्मा को मुक्त, कान्त,
जन-शोषण की बढ़ती यमुना
तुमने की नत-पद-प्रणत, शान्त!
कारा थी संस्कृति विगत, भित्ति
बहु धर्म-जाति-गत रूप-नाम,
बन्दी जग-जीवन, भू-विभक्त,
विज्ञान-मूढ़ जन प्रकृति-काम;
आए तुम मुक्त पुरुष, कहने--
मिथ्या जड़-बन्धन, सत्य राम,
नानृतं जयति सत्यं, मा भैः
जय ज्ञान-ज्योति, तुमको प्रणाम!
रचनाकाल: अप्रैल’१९३६