भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"बादल / अलेक्सान्दर पूश्किन" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=अलेक्सान्दर पूश्किन |संग्रह=धीरे-धीरे लुप्त…) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 17: | पंक्ति 17: | ||
बस काफ़ी है, अब तुम जाओ! वह क्षण बीत गया | बस काफ़ी है, अब तुम जाओ! वह क्षण बीत गया | ||
− | धरती सरस हुई, | + | धरती सरस हुई, झंझा का, अब बल रीत गया, |
और पवन जो मन्द-मन्द, तरू, पत्ते सहलाए | और पवन जो मन्द-मन्द, तरू, पत्ते सहलाए | ||
− | + | शान्त गगन से तुझे उड़ा निश्चय ही ले जाए। | |
− | '''रचनाकाल : | + | '''रचनाकाल : 1835''' |
</poem> | </poem> |
13:12, 26 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
|
वात-बवंडर बिखर चुका है, गगन हुआ निर्मल,
नीले नभ में दौड़ रहे अब एक तुम्हीं बादल,
हर्षमगन हो उजला-उजला दिन है मुस्काया,
उस पर केवल डाल रहे हो, तुम ही दुख-छाया।
कुछ पहले नभ ओर-छोर तक, तुम ही थे छाए
कड़क, कौंध बिजली की तेरी तुमको धमकाए,
थी रहस्य से भरी हुई तब तेरी घन-वानी
तप्त धरा की प्यास बुझाई, बरसाकर पानी।
बस काफ़ी है, अब तुम जाओ! वह क्षण बीत गया
धरती सरस हुई, झंझा का, अब बल रीत गया,
और पवन जो मन्द-मन्द, तरू, पत्ते सहलाए
शान्त गगन से तुझे उड़ा निश्चय ही ले जाए।
रचनाकाल : 1835