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तुम / विहान / महेन्द्र भटनागर

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|संग्रह= विहान / महेन्द्र भटनागर
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 :तुम सहसा आ आलोक-शिखा-सी चमकीं !
:जब तम में जीवन डूब गया था सारा,
:सोया था दूर कहीं पर भाग्य-सितारा,
:तब तुम आश्वासन दे, विद्युत-सी दमकीं !
:सूखे तरुवर पतझर से प्रतिपल लड़कर
:सर्वस्व गवाँ मिटने वाले थे भू पर,
:तब तुम नव-बसंत-सी उर में आ धमकीं !
:जब पीड़ित अंतर ने आह भरी दुख की,
:जब सूख गयी थीं सारी लहरें सुख की,
:तब घन बनकर तुमने नीरसता कम की ! '''रचनाकाल: 1945</poem>
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