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"भाषा की मृत्यु / रघुवीर सहाय" के अवतरणों में अंतर

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भाषा बेकार है
 
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यही कहने के लिए यदि बची है भाषा
 
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तो वह बेकार है
 
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जो मर गया है उसे न पहचानने के कारण
 
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मर गी है वह
 
मर गी है वह
 
 
मृत्यु दो मनुष्यों को जोड़ती है
 
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एक-दूसरे के बराबर रखकर
 
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अगर मृत्यु के आंकड़े
 
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आड़ हैं
 
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जिनमें निहित है
 
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बहुत मरे- मैं उनमें नहीं था
 
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मैं नहीं मरा
 
मैं नहीं मरा
 
 
सब शोक प्रस्ताव हैं अपने बचे रहने की घोषणाएं
 
सब शोक प्रस्ताव हैं अपने बचे रहने की घोषणाएं
 
 
कविता यही करती है घोषणा
 
कविता यही करती है घोषणा
 
 
मरे हुए शब्दों में जब शोक प्रस्ताव करती है
 
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भाषा को शक्ति दो यह प्रार्थना करके
 
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कवि मांगता है बचे रहने का वरदान ।
 
कवि मांगता है बचे रहने का वरदान ।
  
 
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'''1 जुलाई 1972 को रचित'''
(1 जुलाई 1972 को रचित,  कवि के मरणोपरांत प्रकाशित 'एक समय था' नामक कविता-संग्रह से )
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01:42, 6 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

भाषा बेकार है
यही कहने के लिए यदि बची है भाषा
तो वह बेकार है
जो मर गया है उसे न पहचानने के कारण
मर गी है वह
मृत्यु दो मनुष्यों को जोड़ती है
एक-दूसरे के बराबर रखकर
अगर मृत्यु के आंकड़े
आड़ हैं
जिनमें निहित है
बहुत मरे- मैं उनमें नहीं था
मैं नहीं मरा
सब शोक प्रस्ताव हैं अपने बचे रहने की घोषणाएं
कविता यही करती है घोषणा
मरे हुए शब्दों में जब शोक प्रस्ताव करती है
भाषा को शक्ति दो यह प्रार्थना करके
कवि मांगता है बचे रहने का वरदान ।

1 जुलाई 1972 को रचित