Changes

|संग्रह=रोशनी के मैदान की तरफ़ / चन्द्रकान्त देवताले
}}
{{KKCatKavita}}<poem>हम लोगों से बाहर सुबह हो रही थी<br>हम खड़े थे ख़ामोशी के भीतर<br>पानी की तलवार चमकाते हुए<br>गर्मी थी<br>मई से ज्यादह<br>गर्मी से अधिक थी मजबूरी पानी की<br>ख़्वाहिश से कम नहीं थी गले में प्यास<br><br> प्यास थी बहते हुए पानी के लिए<br>पानी था तलवार में तना हुआ<br>नदी थी ताबूत में<br>ताबूत था नहीं हमारा<br>कंधे थे हमारे ताबूत ढोते हुए<br>पाँव थे हमारे<br>पर चाबुक थे उनके<br>उनके थे उन्हीं के हाथों में चाबुक<br>जो दौड़ा रहे थे पाँवों को हमारे<br><br> दोपहरी थी सदी जितनी<br>पसीना था नदी जितना<br>नदी ताबूत में थी<br>ताबूत था डिबिया बराबर<br>चाबुक थे तिनके के समान<br><br>
फिर भी सुबह हमसे बाहर हो रही थी
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits