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"अन्तिम मनुष्य / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

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सोयेगा अन्तिम मानव भी,
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:आज उन्हीं के आगे।
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'''रचनाकाल: १९४२'''
 
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21:27, 4 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

सारी दुनिया उजड़ चुकी है,
गुजर चुका है मेला;
ऊपर है बीमार सूर्य
नीचे मैं मनुज अकेला।

बाल-उमंगों से देखा था
मनु ने जिसे उभरते,
आज देखना मुझे बदा था
उसी सृष्टि को मरते।

वृद्ध सूर्य की आँखों पर
माँड़ी-सी चढ़ी हुई है,
दम तोड़ती हुई बुढ़िया-सी
दुनिया पड़ी हुई है।

कहीं-कहीं गढ़, ग्राम, बगीचों
का है शेष नमूना,
चारों ओर महा मरघट है,
सब है सूना-सूना।

कौमों के कंकाल झुण्ड के
झुण्ड, अनेक पड़े हैं;
ठौर-ठौर पर जीव-जन्तु के
अस्थि-पुंज बिखरे हैं।

घर में सारे गृही गये मर,
पथ में सारे राही,
रण के रोगी जूझ मरे
खेतों में सभी सिपाही।

कहीं आग से, कहीं महामारी से,
कहीं कलह से,
गरज कि पूरी उजड़ चुकी है
दुनिया सभी तरह से।

अब तो कहीं नहीं जीवन की
आहट भी आती है;
हवा दमे की मारी कुछ
चलकर ही थक जाती है।

किरण सूर्य की क्षीण हुई
जाती है बस दो पल में,
दुनिया की आखिरी रात
छा जायेगी भूतल में।

कोटि-कोटि वर्षों का क्रममय
जीवन खो जायेगा,
मनु का वंश बुझेगा,
अन्तिम मानव सो जायेगा।

आह सूर्य? हम-तुम जुड़वे
थे निकले साथ तिमिर से,
होंगे आज विलीन साथ ही
अन्धकार में फिर से।

सच है, किया निशा ने मानव
का आधा मन काला,
पर, आधे पर सदा तुम्हारा
ही चमका उजियाला।

हम में अगणित देव हुए थे,
अगणित हुए दनुज भी,
सब कुछ मिला-जुलाकर लेकिन,
हम थे सदा मनुज ही।

हत्या भी की और दूसरों
के हित स्वयं मरे भी,
सच है, किया पाप, लेकिन,
प्रभु से हम सदा डरे भी।

तब भी स्वर्ग कहा करता था
"धरती बड़ी मलिन है,
मर्त्य लोक वासी मनुजों की
जाति बड़ी निर्घिन है।"

निर्घिन थे हम क्योंकि राग से
था संघर्ष हमारा,
पलता था पंचाग्नि-बीच
व्याकुल आदर्श हमारा।

हाय, घ्राण ही नहीं, तुझे यदि
होता मांस-लहू भी,
ओ स्वर्वासी अमर! मनुज-सा
निर्घिन होता तू भी,

काश, जानता तू कितना
धमनी का लहू गरम है,
चर्म-तृषा दुर्जेय, स्पर्श-सुख
कितना मधुर नरम है।

ज्वलित पिण्ड को हृदय समझकर
ताप सदा सहते थे,
पिघली हुई आग थी नस में,
हम लोहू कहते थे।

मिट्टी नहीं, आग का पुतला,
मानव कहाँ मलिन था?
ज्वाला से लड़नेवाला यह
वीर कहाँ निर्घिन था?

हम में बसी आग यह छिपती
फिरती थी नस-नस में,
वशीभूत थी कभी, कभी
हम ही थे उसके बस में।

वह संगिनी शिखा भी होगी
मुझ से आज किनारा,
नाचेगी फिर नहीं लहू में
गलित अग्नि की धारा।

अन्धकार के महागर्त्त में
सब कुछ सो जायेगा,
सदियों का इतिवृत्त अभी
क्षण भर में खो जायेगा।

लोभ, क्रोध, प्रतिशोध, कलह की
लज्जा-भरी कहानी,
पाप-पंक धोने वाला
आँखों का खारा पानी,

अगणित आविष्कार प्रकृति के
रूप जीतने वाले,
समरों की असंख्य गाथाएँ,
नर के शौर्य निराले,

संयम, नियति, विरति मानव की,
तप की ऊर्ध्व शिखाएँ,
उन्नति और विकास, विजय की
क्रमिक स्पष्ट रेखाएँ,

होंगे सभी विलीन तिमिर में, हाय
अभी दो पल में,
दुनिया की आखिरी रात
छा जायेगी भूतल में।

डूब गया लो सूर्य; गई मुँद
केवल--आँख भुवन की;
किरण साथ ही चली गई
अन्तिम आशा जीवन की।

सब कुछ गया; महा मरघट में
मैं हूँ खड़ा अकेला,
या तो चारों ओर तिमिर है,
या मुर्दों का मेला।

लेकिन, अन्तिम मनुज प्रलय से
अब भी नहीं डरा है,
एक अमर विश्वास ज्योति-सा
उस में अभी भरा है।

आज तिमिर के महागर्त्त में
वह विश्वास जलेगा,
खुद प्रशस्त होगा पथ, निर्भय
मनु का पुत्र चलेगा।

निरावरण हो जो त्रिभुवन में
जीवन फैलाता है,
वही देवता आज मरण में
छिपा हुआ आता है।

देव, तुम्हारे रुद्र रूप से
निखिल विश्व डरता है,
विश्वासी नर एक शेष है
जो स्वागत करता है।

आओ खोले जटा-जाल
जिह्वा लेलिह्य पसारे,
अनल-विशिख-तूणीर सँभाले
धनुष ध्वंस का धारे।

’जय हो’, जिनके कर-स्पर्श से
आदि पुरुष थे जागे,
सोयेगा अन्तिम मानव भी,
आज उन्हीं के आगे।

रचनाकाल: १९४२