भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 4" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 4 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
+
|रचनाकार=अज्ञेय
 
}}
 
}}
[[Category:लम्बी कविता]]
+
[[Category:लम्बी रचना]]
 
+
[[असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 3|<< पिछला भाग]]
+
  
 +
{{KKPageNavigation
 +
|पीछे=असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 3
 +
|आगे=असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 5
 +
|सारणी=असाध्य वीणा / अज्ञेय
 +
}}
  
 
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]
 
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]
 +
<poem>
 +
"मुझे स्मरण है
 +
उझक क्षितिज से
 +
किरण भोर की पहली
 +
जब तकती है ओस-बूँद को
 +
उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।
 +
और दुपहरी में जब
 +
घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं
 +
मौमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुंजार --
 +
उस लम्बे विलमे क्षण का तन्द्रालस ठहराव।
 +
और साँझ को
 +
जब तारों की तरल कँपकँपी 
  
"मुझे स्मरण है<br>
+
स्पर्शहीन झरती है --  
उझक क्षितिज से<br>
+
मानो नभ में तरल नयन ठिठकी  
किरण भोर की पहली<br>
+
नि:संख्य सवत्सा युवती माताओं के आशिर्वाद --  
जब तकती है ओस-बूँद को<br>
+
उस सन्धि-निमिष की पुलकन लीयमान।
उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।<br>
+
और दुपहरी में जब<br>
+
घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं<br>
+
मौमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुंजार --<br>
+
उस लम्बे विलमे क्षण का तन्द्रालस ठहराव।<br>
+
और साँझ को<br>
+
जब तारों की तरल कँपकँपी<br><br>
+
 
+
स्पर्शहीन झरती है --<br>
+
मानो नभ में तरल नयन ठिठकी<br>
+
नि:संख्य सवत्सा युवती माताओं के आशिर्वाद --<br>
+
उस सन्धि-निमिष की पुलकन लीयमान।<br><br>
+
 
+
"मुझे स्मरण है<br>
+
और चित्र प्रत्येक<br>
+
स्तब्ध, विजड़ित करता है मुझको।<br>
+
सुनता हूँ मैं<br>
+
पर हर स्वर-कम्पन लेता है मुझको मुझसे सोख --<br>
+
वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ। ...<br>
+
मुझे स्मरण है --<br>
+
पर मुझको मैं भूल गया हूँ :<br>
+
सुनता हूँ मैं --<br>
+
पर मैं मुझसे परे, शब्द में लीयमान।<br><br>
+
  
"मैं नहीं, नहीं ! मैं कहीं नहीं !<br>
+
"मुझे स्मरण है
ओ रे तरु ! ओ वन !<br>
+
और चित्र प्रत्येक
स्वर-सँभार !<br>
+
स्तब्ध, विजड़ित करता है मुझको।
नाद-मय संसृति !<br>
+
सुनता हूँ मैं
ओ रस-प्लावन !<br>
+
पर हर स्वर-कम्पन लेता है मुझको मुझसे सोख --  
मुझे क्षमा कर -- भूल अकिंचनता को मेरी --<br>
+
वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ। ...
मुझे ओट दे -- ढँक ले -- छा ले --<br>
+
मुझे स्मरण है --  
ओ शरण्य !<br>
+
पर मुझको मैं भूल गया हूँ :
मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले !<br>
+
सुनता हूँ मैं --  
, मुझे भला,<br>
+
पर मैं मुझसे परे, शब्द में लीयमान। 
तू उतर बीन के तारों में<br>
+
अपने से गा<br>
+
अपने को गा --<br>
+
अपने खग-कुल को मुखरित कर<br><br>
+
  
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]<br><br>
+
"मैं नहीं, नहीं ! मैं कहीं नहीं !
 +
ओ रे तरु ! ओ वन !
 +
ओ स्वर-सँभार !
 +
नाद-मय संसृति !
 +
ओ रस-प्लावन !
 +
मुझे क्षमा कर -- भूल अकिंचनता को मेरी --
 +
मुझे ओट दे -- ढँक ले -- छा ले --
 +
ओ शरण्य !
 +
मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले !
 +
आ, मुझे भला,
 +
तू उतर बीन के तारों में
 +
अपने से गा
 +
अपने को गा --
 +
अपने खग-कुल को मुखरित कर 
  
अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध,<br>
+
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]] 
अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर<br>
+
अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त,<br>
+
अपनी प्रज्ञा को वाणी दे !<br>
+
तू गा, तू गा --<br>
+
तू सन्निधि पा -- तू खो<br>
+
तू आ -- तू हो -- तू गा ! तू गा !"<br><br>
+
  
राजा आगे<br>
+
अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध,
समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था --<br>
+
अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर
काँपी थी उँगलियाँ।<br>
+
अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त,
अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा :<br>
+
अपनी प्रज्ञा को वाणी दे !
किलक उठे थे स्वर-शिशु।<br>
+
तू गा, तू गा --  
नीरव पद रखता जालिक मायावी<br>
+
तू सन्निधि पा -- तू खो
सधे करों से धीरे धीरे धीरे<br>
+
तू आ -- तू हो -- तू गा ! तू गा !" 
डाल रहा था जाल हेम तारों-का ।<br><br>
+
  
सहसा वीणा झनझना उठी --<br>
+
राजा आगे
संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गयी --<br>
+
समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था --  
रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया ।<br>
+
काँपी थी उँगलियाँ।
अवतरित हुआ संगीत<br>
+
अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा :
स्वयम्भू<br>
+
किलक उठे थे स्वर-शिशु।
जिसमें सीत है अखंड<br>
+
नीरव पद रखता जालिक मायावी
ब्रह्मा का मौन<br>
+
सधे करों से धीरे धीरे धीरे
अशेष प्रभामय <br><br>
+
डाल रहा था जाल हेम तारों-का ।
  
डूब गये सब एक साथ <br>
+
सहसा वीणा झनझना उठी --
सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे <br><br>
+
संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गयी --
 +
रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया ।  
 +
अवतरित हुआ संगीत
 +
स्वयम्भू
 +
जिसमें सीत है अखंड
 +
ब्रह्मा का मौन
 +
अशेष प्रभामय
  
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]<br><br>
+
डूब गये सब एक साथ ।
 +
सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे । 
  
 +
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]] 
  
 
[[असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 5|अगला भाग >>]]
 
[[असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 5|अगला भाग >>]]
 +
</poem>

00:33, 2 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

चित्र:Veena instrument.jpg

"मुझे स्मरण है
उझक क्षितिज से
किरण भोर की पहली
जब तकती है ओस-बूँद को
उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।
और दुपहरी में जब
घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं
मौमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुंजार --
उस लम्बे विलमे क्षण का तन्द्रालस ठहराव।
और साँझ को
जब तारों की तरल कँपकँपी

स्पर्शहीन झरती है --
मानो नभ में तरल नयन ठिठकी
नि:संख्य सवत्सा युवती माताओं के आशिर्वाद --
उस सन्धि-निमिष की पुलकन लीयमान।

"मुझे स्मरण है
और चित्र प्रत्येक
स्तब्ध, विजड़ित करता है मुझको।
सुनता हूँ मैं
पर हर स्वर-कम्पन लेता है मुझको मुझसे सोख --
वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ। ...
मुझे स्मरण है --
पर मुझको मैं भूल गया हूँ :
सुनता हूँ मैं --
पर मैं मुझसे परे, शब्द में लीयमान।

"मैं नहीं, नहीं ! मैं कहीं नहीं !
ओ रे तरु ! ओ वन !
ओ स्वर-सँभार !
नाद-मय संसृति !
ओ रस-प्लावन !
मुझे क्षमा कर -- भूल अकिंचनता को मेरी --
मुझे ओट दे -- ढँक ले -- छा ले --
ओ शरण्य !
मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले !
आ, मुझे भला,
तू उतर बीन के तारों में
अपने से गा
अपने को गा --
अपने खग-कुल को मुखरित कर

चित्र:Veena instrument.jpg

अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध,
अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर
अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त,
अपनी प्रज्ञा को वाणी दे !
तू गा, तू गा --
तू सन्निधि पा -- तू खो
तू आ -- तू हो -- तू गा ! तू गा !"

राजा आगे
समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था --
काँपी थी उँगलियाँ।
अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा :
किलक उठे थे स्वर-शिशु।
नीरव पद रखता जालिक मायावी
सधे करों से धीरे धीरे धीरे
डाल रहा था जाल हेम तारों-का ।

सहसा वीणा झनझना उठी --
संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गयी --
रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया ।
अवतरित हुआ संगीत
स्वयम्भू
जिसमें सीत है अखंड
ब्रह्मा का मौन
अशेष प्रभामय ।

डूब गये सब एक साथ ।
सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे ।

चित्र:Veena instrument.jpg

अगला भाग >>