"हल्दीघाटी / षोडश सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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+ | <poem> | ||
+ | '''षोडश सर्ग: सगथी''' | ||
− | + | आधी रात अँधेरी | |
+ | तम की घनता थी छाई। | ||
+ | कमलों की आँखों से भी | ||
+ | कुछ देता था न दिखाई॥1॥ | ||
− | + | पर्वत पर¸ घोर विजन में | |
− | + | नीरवता का शासन था। | |
− | + | गिरि अरावली सोया था | |
− | + | सोया तमसावृत वन था॥2॥ | |
− | पर्वत पर¸ घोर विजन में | + | |
− | नीरवता का शासन था। | + | धीरे से तरू के पल्लव |
− | गिरि अरावली सोया था | + | गिरते थे भू पर आकर। |
− | सोया तमसावृत वन | + | नीड़ों में खग सोये थे |
− | धीरे से तरू के पल्लव | + | सन्ध्या को गान सुनाकर॥3॥ |
− | गिरते थे भू पर आकर। | + | |
− | नीड़ों में खग सोये थे | + | नाहर अपनी माँदों में |
− | सन्ध्या को गान | + | मृग वन–लतिका झुरमुट में। |
− | नाहर अपनी | + | दृग मूंद सुमन सोये थे |
− | मृग वन–लतिका झुरमुट में। | + | पंखुरियों के सम्पुट में॥4॥ |
− | दृग मूंद सुमन सोये थे | + | |
− | पंखुरियों के सम्पुट | + | गाकर मधु–गीत मनोहर |
− | गाकर मधु–गीत मनोहर | + | मधुमाखी मधुछातों पर। |
− | मधुमाखी मधुछातों पर। | + | सोई थीं बाल तितलियां |
− | सोई थीं बाल तितलियां | + | मुकुलित नव जलजातों पर॥5॥ |
− | मुकुलित नव जलजातों | + | |
− | तिमिरालिंगन से छाया | + | तिमिरालिंगन से छाया |
− | थी एकाकार निशा भर। | + | थी एकाकार निशा भर। |
− | सोई थी नियति अचल पर | + | सोई थी नियति अचल पर |
− | ओढ़े घन–तम की | + | ओढ़े घन–तम की चादर॥6॥ |
− | + | ||
− | पुतली में तिल की रेखा। | + | आँखों के अन्दर पुतली |
− | उसने भी उस रजनी में | + | पुतली में तिल की रेखा। |
− | केवल तारों को | + | उसने भी उस रजनी में |
− | वे नभ पर | + | केवल तारों को देखा॥7॥ |
− | था शीत–कोप कंगलों में। | + | |
− | सूरज–मयंक सोये थे | + | वे नभ पर काँप रहे थे¸ |
− | अपने–अपने बंगलों | + | था शीत–कोप कंगलों में। |
− | निशि–अंधियाली में निद्रित | + | सूरज–मयंक सोये थे |
− | मारूत रूक–रूक चलता था। | + | अपने–अपने बंगलों में॥8॥ |
− | अम्बर था तुहिन बरसता | + | |
− | पर्वत हिम–सा गलता | + | निशि–अंधियाली में निद्रित |
− | हेमन्त–शिशिर का शासन¸ | + | मारूत रूक–रूक चलता था। |
− | लम्बी थी रात विरह–सी। | + | अम्बर था तुहिन बरसता |
− | संयोग–सदृश लघु वासर¸ | + | पर्वत हिम–सा गलता था॥9॥ |
− | दिनकर की छवि | + | |
− | निर्धन के फटे पुराने | + | हेमन्त–शिशिर का शासन¸ |
− | पट के छिद्रों से आकर¸ | + | लम्बी थी रात विरह–सी। |
− | शर–सदृश हवा लगती थी | + | संयोग–सदृश लघु वासर¸ |
− | पाषाण–हृदय दहला | + | दिनकर की छवि हिमकर–सी॥10॥ |
− | लगती चन्दन–सी शीतल | + | |
− | पावक की जलती ज्वाला। | + | निर्धन के फटे पुराने |
− | बाड़व भी | + | पट के छिद्रों से आकर¸ |
− | पहने तुषार की | + | शर–सदृश हवा लगती थी |
− | जग अधर विकल हिलते थे | + | पाषाण–हृदय दहला कर॥11॥ |
− | चलदल के दल से थर–थर। | + | |
− | ओसों के मिस नभ–दृग से | + | लगती चन्दन–सी शीतल |
− | बहते थे | + | पावक की जलती ज्वाला। |
− | यव की कोमल बालों पर¸ | + | बाड़व भी काँप रहा था |
− | मटरों की मृदु फलियों पर¸ | + | पहने तुषार की माला॥12॥ |
− | नभ के | + | |
− | तीसी की नव कलियों | + | जग अधर विकल हिलते थे |
− | घन–हरित चने के पौधे¸ | + | चलदल के दल से थर–थर। |
− | जिनमें कुछ लहुरे जेठे¸ | + | ओसों के मिस नभ–दृग से |
− | भिंग गये ओस के जल से | + | बहते थे आँसू झर–झर॥13॥ |
− | सरसों के पीत | + | |
− | वह शीत काल की रजनी | + | यव की कोमल बालों पर¸ |
− | कितनी भयदायक होगी। | + | मटरों की मृदु फलियों पर¸ |
− | पर उसमें भी करता था | + | नभ के आँसू बिखरे थे |
− | तप एक वियोगी | + | तीसी की नव कलियों पर॥14॥ |
− | वह नीरव निशीथिनी में¸ | + | |
− | जिसमें दुनिया थी सोई। | + | घन–हरित चने के पौधे¸ |
− | निझर्र की करूण–कहानी | + | जिनमें कुछ लहुरे जेठे¸ |
− | बैठा सुनता था | + | भिंग गये ओस के जल से |
− | उस निझर्र के तट पर ही | + | सरसों के पीत मुरेठे॥15॥ |
− | राणा की दीन–कुटी थी। | + | |
− | वह कोने में बैठा था¸ | + | वह शीत काल की रजनी |
− | कुछ वंकिम सी भृकुटी | + | कितनी भयदायक होगी। |
− | वह कभी कथा झरने की | + | पर उसमें भी करता था |
− | सुनता था कान लगाकर। | + | तप एक वियोगी योगी॥16॥ |
− | वह कभी सिहर उठता था¸ | + | |
− | मारूत के झोंके | + | वह नीरव निशीथिनी में¸ |
− | नीहार–भार–नत मन्थर | + | जिसमें दुनिया थी सोई। |
− | निझर्र से सीकर लेकर¸ | + | निझर्र की करूण–कहानी |
− | जब कभी हवा चलती थी | + | बैठा सुनता था कोई॥17॥ |
− | पर्वत को पीड़ा | + | |
− | तब वह कथरी के भीतर | + | उस निझर्र के तट पर ही |
− | आहें भरता था सोकर। | + | राणा की दीन–कुटी थी। |
− | वह कभी याद जननी की | + | वह कोने में बैठा था¸ |
− | करता था पागल | + | कुछ वंकिम सी भृकुटी थी॥18॥ |
− | वह कहता था वैरी ने | + | |
− | मेरे गढ़ पर गढ़ जीते। | + | वह कभी कथा झरने की |
− | वह कहता रोकर¸ | + | सुनता था कान लगाकर। |
− | अब सेवा के दिन | + | वह कभी सिहर उठता था¸ |
− | यद्यपि जनता के उर में | + | मारूत के झोंके खाकर॥19॥ |
− | मेरा ही अनुशासन है¸ | + | |
− | पर इंच–इंच भर भू पर | + | नीहार–भार–नत मन्थर |
− | अरि का चलता शासन | + | निझर्र से सीकर लेकर¸ |
− | दो चार दिवस पर रोटी | + | जब कभी हवा चलती थी |
− | खाने को आगे आई। | + | पर्वत को पीड़ा देकर॥20॥ |
− | केवल सूरत भर देखी | + | |
− | फिर भगकर जान | + | तब वह कथरी के भीतर |
− | अब वन–वन फिरने के दिन | + | आहें भरता था सोकर। |
− | मेरी रजनी जगने की। | + | वह कभी याद जननी की |
− | क्षण | + | करता था पागल होकर॥21॥ |
− | आई नौबत भगने | + | |
− | मैं बूझा रहा | + | वह कहता था वैरी ने |
− | कह–कहकर समर–कहानी। | + | मेरे गढ़ पर गढ़ जीते। |
− | बुद–बुद कुछ पका रही है | + | वह कहता रोकर¸ माँ की |
− | हा¸ सिसक–सिसककर | + | अब सेवा के दिन बीते॥22॥ |
− | + | ||
− | चिर क्रीत पुराने पट से। | + | यद्यपि जनता के उर में |
− | पानी पनिहारिन–पलकें | + | मेरा ही अनुशासन है¸ |
− | भरतीं अन्तर–पनघट | + | पर इंच–इंच भर भू पर |
− | तब तक चमकी वैरी–असि | + | अरि का चलता शासन है॥23॥ |
− | मैं भगकर छिपा अनारी। | + | |
− | + | दो चार दिवस पर रोटी | |
− | हा¸ वह मेरी | + | खाने को आगे आई। |
− | तृण घास–पात का भोजन | + | केवल सूरत भर देखी |
− | रह गया वहीं पकता ही। | + | फिर भगकर जान बचाई।24॥ |
− | मैं झुरमुट के छिद्रों से | + | |
− | रह गया उसे तकता | + | अब वन–वन फिरने के दिन |
− | चलते–चलते थकने पर | + | मेरी रजनी जगने की। |
− | बैठा तरू की छाया में। | + | क्षण आँखों के लगते ही |
− | क्षण भर ठहरा सुख आकर | + | आई नौबत भगने की॥25॥ |
− | मेरी जर्जर–काया | + | |
− | जल–हीन रो पड़ी रानी¸ | + | मैं बूझा रहा हूँ शिशु को |
− | बच्चों को तृषित रूलाकर। | + | कह–कहकर समर–कहानी। |
− | कुश–कण्टक की शय्या पर | + | बुद–बुद कुछ पका रही है |
− | वह सोई उन्हें | + | हा¸ सिसक–सिसककर रानी॥26॥ |
− | तब तक अरि के आने की | + | |
− | आहट कानों में आई। | + | आँसू–जल पोंछ रही है |
− | बच्चों ने | + | चिर क्रीत पुराने पट से। |
− | कह–कहकर | + | पानी पनिहारिन–पलकें |
− | रव के भय से शिशु–मुख को | + | भरतीं अन्तर–पनघट से॥27॥ |
− | वल्कल से | + | |
− | गह्वर में छिपकर रोने | + | तब तक चमकी वैरी–असि |
− | रानी के साथ लगे | + | मैं भगकर छिपा अनारी। |
− | वह दिन न अभी भूला है¸ | + | काँटों के पथ से भागी |
− | भूला न अभी गह्नर है। | + | हा¸ वह मेरी सुकुमारी॥28॥ |
− | सम्मुख दिखलाई देता | + | |
− | वह | + | तृण घास–पात का भोजन |
− | जब सहन न होता¸ उठता | + | रह गया वहीं पकता ही। |
− | लेकर तलवार अकेला। | + | मैं झुरमुट के छिद्रों से |
− | रानी | + | रह गया उसे तकता ही॥29॥ |
− | संगर करने की | + | |
− | तब भी न तनिक रूकता तो | + | चलते–चलते थकने पर |
− | बच्चे रोने लगते हैं। | + | बैठा तरू की छाया में। |
− | खाने को दो कह–कहकर | + | क्षण भर ठहरा सुख आकर |
− | व्याकुल होने लगते | + | मेरी जर्जर–काया में॥30॥ |
− | मेरे निबर्ल हाथों से | + | |
− | तलवार तुरत गिरती है। | + | जल–हीन रो पड़ी रानी¸ |
− | इन | + | बच्चों को तृषित रूलाकर। |
− | पुतली–मछली तिरती | + | कुश–कण्टक की शय्या पर |
− | हा¸ क्षुधा–तृषा से आकुल | + | वह सोई उन्हें सुलाकर॥31॥ |
− | मेरा यह दुबर्ल तन है। | + | |
− | इसको कहते जीवन क्या¸ | + | तब तक अरि के आने की |
− | यह ही जीवन जीवन | + | आहट कानों में आई। |
− | अब जननी के हित मुझको | + | बच्चों ने आँखें खोलीं |
− | मेवाड़ छोड़ना होगा। | + | कह–कहकर माई–माई॥32॥ |
− | कुछ दिन तक | + | |
− | हा¸ विवश तोड़ना | + | रव के भय से शिशु–मुख को |
− | अब दूर विजन में रहकर | + | वल्कल से बाँध भगे हम। |
− | राणा कुछ कर सकता है। | + | गह्वर में छिपकर रोने |
− | जिसकी गोदी में खेला¸ | + | रानी के साथ लगे हम॥33॥ |
− | उसका ऋण भर सकता | + | |
− | यह कहकर उसने निशि में | + | वह दिन न अभी भूला है¸ |
− | अपना परिवार जगाया। | + | भूला न अभी गह्नर है। |
− | + | सम्मुख दिखलाई देता | |
− | क्षण उनको गले | + | वह आँखों का झर–झर है॥34॥ |
− | बोला | + | |
− | + | जब सहन न होता¸ उठता | |
− | अपने–अपने अन्तर में | + | लेकर तलवार अकेला। |
− | जननी की सेवा भर | + | रानी कहती– न अभी है |
− | चल दो¸ क्षण देर करो मत¸ | + | संगर करने की बेला॥35॥ |
− | अब समय न है रोने को। | + | |
− | मेवाड़ न दे सकता है | + | तब भी न तनिक रूकता तो |
− | तिल भर भी भू सोने | + | बच्चे रोने लगते हैं। |
− | चल किसी विजन कोने में | + | खाने को दो कह–कहकर |
− | अब शेष बिता दो जीवन। | + | व्याकुल होने लगते हैं॥36॥ |
− | इस दुखद भयावह ज्वर की | + | |
− | यह ही है दवा | + | मेरे निबर्ल हाथों से |
− | सुन व्यथा–कथा रानी ने | + | तलवार तुरत गिरती है। |
− | + | इन आँखों की सरिता में | |
− | कर लिया मूक अभिवादन | + | पुतली–मछली तिरती है॥37॥ |
− | + | ||
− | + | हा¸ क्षुधा–तृषा से आकुल | |
− | तन–पट का धागा–धागा। | + | मेरा यह दुबर्ल तन है। |
− | कुछ मौन–मौन जब | + | इसको कहते जीवन क्या¸ |
− | अंचल पसार कर | + | यह ही जीवन जीवन है॥38॥ |
− | बच्चों ने भी रो–रोकर | + | |
− | की विनय वन्दना | + | अब जननी के हित मुझको |
− | पत्थर भी पिघल रहा था | + | मेवाड़ छोड़ना होगा। |
− | वह देख–देखकर | + | कुछ दिन तक माँ से नाता |
− | राणा ने मुकुट नवाया | + | हा¸ विवश तोड़ना होगा॥39॥ |
− | चलने की हुई तैयारी। | + | |
− | पत्नी शिशु लेकर आगे | + | अब दूर विजन में रहकर |
− | पीछे पति | + | राणा कुछ कर सकता है। |
− | तत्काल किसी के पद का | + | जिसकी गोदी में खेला¸ |
− | खुर–खुर रव दिया सुनाई। | + | उसका ऋण भर सकता है॥40॥ |
− | कुछ मिली मनुज की आहट¸ | + | |
− | फिर जय–जय की ध्वनि | + | यह कहकर उसने निशि में |
− | राणा की जय राणा की | + | अपना परिवार जगाया। |
− | जय–जय राणा की जय हो। | + | आँखों में आँसू भरकर |
− | जय हो प्रताप की जय हो¸ | + | क्षण उनको गले लगाया॥41॥ |
− | राणा की सदा विजय | + | |
− | वह ठहर गया रानी से | + | बोला –"तुम लोग यहीं से |
− | बोला – | + | माँ का अभिवादन कर लो। |
− | मैं स्वप्न देखता | + | अपने–अपने अन्तर में |
− | भ्रम से ही व्याकुल | + | जननी की सेवा भर लो॥42॥ |
− | तुम भी सुनती या मैं ही | + | |
− | श्रुति–मधुर नाद सुनता | + | चल दो¸ क्षण देर करो मत¸ |
− | जय–जय की मन्थर ध्वनि में | + | अब समय न है रोने को। |
− | मैं मुक्तिवाद सुनता | + | मेवाड़ न दे सकता है |
− | तब तक भामा ने फेंकी | + | तिल भर भी भू सोने को॥43॥ |
− | अपने हाथों की लकुटी। | + | |
− | + | चल किसी विजन कोने में | |
− | पैरों पर रख दी | + | अब शेष बिता दो जीवन। |
− | + | इस दुखद भयावह ज्वर की | |
− | धीमे–धीमे वह बोला – | + | यह ही है दवा सजीवन।"॥44॥ |
− | + | ||
− | + | सुन व्यथा–कथा रानी ने | |
− | खन–खन–खन मणिमुद्रा की | + | आँचल का कोना धरकर¸ |
− | मुक्ता की राशि लगा दी। | + | कर लिया मूक अभिवादन |
− | रत्नों की ध्वनि से बन की | + | आँखों में पानी भरकर॥45॥ |
− | नीरवता सकल भगा | + | |
− | + | हाँ¸ काँप उठा रानी के | |
− | तुम सेना वेतन–भोगी। | + | तन–पट का धागा–धागा। |
− | तुम एक बार फिर जूझो | + | कुछ मौन–मौन जब माँ से |
− | अब विजय तुम्हारी | + | अंचल पसार कर माँगा॥46॥ |
− | कारागृह में बन्दी | + | |
− | नित करती याद तुम्हें है। | + | बच्चों ने भी रो–रोकर |
− | तुम मुक्त करो जननी को | + | की विनय वन्दना माँ की। |
− | यह आशीर्वाद तुम्हें | + | पत्थर भी पिघल रहा था |
− | वह निबर्ल वृद्ध तपस्वी | + | वह देख–देखकर झाँकी॥47॥ |
− | लग गया | + | |
− | गिर पड़ी लार अवनी पर¸ | + | राणा ने मुकुट नवाया |
− | हा उसके मुख से | + | चलने की हुई तैयारी। |
− | वह कह न सका कुछ आगे¸ | + | पत्नी शिशु लेकर आगे |
− | सब भूल गया आने पर। | + | पीछे पति वल्कल–धारी॥48॥ |
− | कटि–जानु थामकर बैठा | + | |
− | वह भू पर थक जाने | + | तत्काल किसी के पद का |
− | राणा ने गले लगाया | + | खुर–खुर रव दिया सुनाई। |
− | कायरता धो लेने पर। | + | कुछ मिली मनुज की आहट¸ |
− | फिर बिदा किया भामा को | + | फिर जय–जय की ध्वनि आई॥49। |
− | घुल–घुल कर रो लेने | + | राणा की जय राणा की |
− | खुल गये कमल–कोषों के | + | जय–जय राणा की जय हो। |
− | कारागृह के दरवाजे। | + | जय हो प्रताप की जय हो¸ |
− | उससे बन्दी अलि निकले | + | राणा की सदा विजय हो॥50॥ |
− | सेंगर के | + | |
− | उषा ने राणा के सिर | + | वह ठहर गया रानी से |
− | सोने का ताज सजाया। | + | बोला – "मैं क्या हूँ सोता? |
− | उठकर मेवाड़–विजय का | + | मैं स्वप्न देखता हूँ या |
− | खग–कुल ने गाना | + | भ्रम से ही व्याकुल होता॥51॥ |
− | कोमल–कोमल पत्तों में | + | |
− | फूलों को | + | तुम भी सुनती या मैं ही |
− | खिंच गई वीर के उर में | + | श्रुति–मधुर नाद सुनता हूँ। |
− | आशा की पतली | + | जय–जय की मन्थर ध्वनि में |
− | उसको बल मिला हिमालय का¸ | + | मैं मुक्तिवाद सुनता हूँ।"॥52॥ |
− | जननी–सेवा–अनुरक्ति मिली। | + | |
− | वर मिला उसे प्रलयंकर का¸ | + | तब तक भामा ने फेंकी |
− | उसको चण्डी की शक्ति | + | अपने हाथों की लकुटी। |
− | सूरज का उसको तेज मिला¸ | + | 'मेरे शिशु्' कह राणा के |
− | नाहर समान वह गरज उठा। | + | पैरों पर रख दी त्रिकुटी॥53॥ |
− | पर्वत पर झण्डा फइराकर | + | |
− | सावन–घन सा वह गरज | + | आँसू से पद को धोकर |
− | तलवार निकाली¸ चमकाई¸ | + | धीमे–धीमे वह बोला – |
− | अम्बर में फेरी घूम–घूम। | + | "यह मेरी सेवा्" कहकर |
− | फिर रखी म्यान में चम–चम–चम¸ | + | थैलों के मुँह को खोला॥54॥ |
− | खरधार–दुधारी | + | |
+ | खन–खन–खन मणिमुद्रा की | ||
+ | मुक्ता की राशि लगा दी। | ||
+ | रत्नों की ध्वनि से बन की | ||
+ | नीरवता सकल भगा दी॥55॥ | ||
+ | |||
+ | "एकत्र करो इस धन से | ||
+ | तुम सेना वेतन–भोगी। | ||
+ | तुम एक बार फिर जूझो | ||
+ | अब विजय तुम्हारी होगी॥56॥ | ||
+ | |||
+ | कारागृह में बन्दी माँ | ||
+ | नित करती याद तुम्हें है। | ||
+ | तुम मुक्त करो जननी को | ||
+ | यह आशीर्वाद तुम्हें हैं।"॥57॥ | ||
+ | |||
+ | वह निबर्ल वृद्ध तपस्वी | ||
+ | लग गया हाँफने कहकर। | ||
+ | गिर पड़ी लार अवनी पर¸ | ||
+ | हा उसके मुख से बहकर॥58॥ | ||
+ | |||
+ | वह कह न सका कुछ आगे¸ | ||
+ | सब भूल गया आने पर। | ||
+ | कटि–जानु थामकर बैठा | ||
+ | वह भू पर थक जाने पर॥59॥ | ||
+ | |||
+ | राणा ने गले लगाया | ||
+ | कायरता धो लेने पर। | ||
+ | फिर बिदा किया भामा को | ||
+ | घुल–घुल कर रो लेने पर॥60॥ | ||
+ | |||
+ | खुल गये कमल–कोषों के | ||
+ | कारागृह के दरवाजे। | ||
+ | उससे बन्दी अलि निकले | ||
+ | सेंगर के बाजे–बाजे॥61॥ | ||
+ | |||
+ | उषा ने राणा के सिर | ||
+ | सोने का ताज सजाया। | ||
+ | उठकर मेवाड़–विजय का | ||
+ | खग–कुल ने गाना गाया॥62॥ | ||
+ | |||
+ | कोमल–कोमल पत्तों में | ||
+ | फूलों को हँसते देखा। | ||
+ | खिंच गई वीर के उर में | ||
+ | आशा की पतली रेखा॥63॥ | ||
+ | |||
+ | उसको बल मिला हिमालय का¸ | ||
+ | जननी–सेवा–अनुरक्ति मिली। | ||
+ | वर मिला उसे प्रलयंकर का¸ | ||
+ | उसको चण्डी की शक्ति मिली॥64॥ | ||
+ | |||
+ | सूरज का उसको तेज मिला¸ | ||
+ | नाहर समान वह गरज उठा। | ||
+ | पर्वत पर झण्डा फइराकर | ||
+ | सावन–घन सा वह गरज उठा॥65॥ | ||
+ | |||
+ | तलवार निकाली¸ चमकाई¸ | ||
+ | अम्बर में फेरी घूम–घूम। | ||
+ | फिर रखी म्यान में चम–चम–चम¸ | ||
+ | खरधार–दुधारी चूम–चूम॥66॥ | ||
+ | </poem> |
04:08, 13 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
षोडश सर्ग: सगथी
आधी रात अँधेरी
तम की घनता थी छाई।
कमलों की आँखों से भी
कुछ देता था न दिखाई॥1॥
पर्वत पर¸ घोर विजन में
नीरवता का शासन था।
गिरि अरावली सोया था
सोया तमसावृत वन था॥2॥
धीरे से तरू के पल्लव
गिरते थे भू पर आकर।
नीड़ों में खग सोये थे
सन्ध्या को गान सुनाकर॥3॥
नाहर अपनी माँदों में
मृग वन–लतिका झुरमुट में।
दृग मूंद सुमन सोये थे
पंखुरियों के सम्पुट में॥4॥
गाकर मधु–गीत मनोहर
मधुमाखी मधुछातों पर।
सोई थीं बाल तितलियां
मुकुलित नव जलजातों पर॥5॥
तिमिरालिंगन से छाया
थी एकाकार निशा भर।
सोई थी नियति अचल पर
ओढ़े घन–तम की चादर॥6॥
आँखों के अन्दर पुतली
पुतली में तिल की रेखा।
उसने भी उस रजनी में
केवल तारों को देखा॥7॥
वे नभ पर काँप रहे थे¸
था शीत–कोप कंगलों में।
सूरज–मयंक सोये थे
अपने–अपने बंगलों में॥8॥
निशि–अंधियाली में निद्रित
मारूत रूक–रूक चलता था।
अम्बर था तुहिन बरसता
पर्वत हिम–सा गलता था॥9॥
हेमन्त–शिशिर का शासन¸
लम्बी थी रात विरह–सी।
संयोग–सदृश लघु वासर¸
दिनकर की छवि हिमकर–सी॥10॥
निर्धन के फटे पुराने
पट के छिद्रों से आकर¸
शर–सदृश हवा लगती थी
पाषाण–हृदय दहला कर॥11॥
लगती चन्दन–सी शीतल
पावक की जलती ज्वाला।
बाड़व भी काँप रहा था
पहने तुषार की माला॥12॥
जग अधर विकल हिलते थे
चलदल के दल से थर–थर।
ओसों के मिस नभ–दृग से
बहते थे आँसू झर–झर॥13॥
यव की कोमल बालों पर¸
मटरों की मृदु फलियों पर¸
नभ के आँसू बिखरे थे
तीसी की नव कलियों पर॥14॥
घन–हरित चने के पौधे¸
जिनमें कुछ लहुरे जेठे¸
भिंग गये ओस के जल से
सरसों के पीत मुरेठे॥15॥
वह शीत काल की रजनी
कितनी भयदायक होगी।
पर उसमें भी करता था
तप एक वियोगी योगी॥16॥
वह नीरव निशीथिनी में¸
जिसमें दुनिया थी सोई।
निझर्र की करूण–कहानी
बैठा सुनता था कोई॥17॥
उस निझर्र के तट पर ही
राणा की दीन–कुटी थी।
वह कोने में बैठा था¸
कुछ वंकिम सी भृकुटी थी॥18॥
वह कभी कथा झरने की
सुनता था कान लगाकर।
वह कभी सिहर उठता था¸
मारूत के झोंके खाकर॥19॥
नीहार–भार–नत मन्थर
निझर्र से सीकर लेकर¸
जब कभी हवा चलती थी
पर्वत को पीड़ा देकर॥20॥
तब वह कथरी के भीतर
आहें भरता था सोकर।
वह कभी याद जननी की
करता था पागल होकर॥21॥
वह कहता था वैरी ने
मेरे गढ़ पर गढ़ जीते।
वह कहता रोकर¸ माँ की
अब सेवा के दिन बीते॥22॥
यद्यपि जनता के उर में
मेरा ही अनुशासन है¸
पर इंच–इंच भर भू पर
अरि का चलता शासन है॥23॥
दो चार दिवस पर रोटी
खाने को आगे आई।
केवल सूरत भर देखी
फिर भगकर जान बचाई।24॥
अब वन–वन फिरने के दिन
मेरी रजनी जगने की।
क्षण आँखों के लगते ही
आई नौबत भगने की॥25॥
मैं बूझा रहा हूँ शिशु को
कह–कहकर समर–कहानी।
बुद–बुद कुछ पका रही है
हा¸ सिसक–सिसककर रानी॥26॥
आँसू–जल पोंछ रही है
चिर क्रीत पुराने पट से।
पानी पनिहारिन–पलकें
भरतीं अन्तर–पनघट से॥27॥
तब तक चमकी वैरी–असि
मैं भगकर छिपा अनारी।
काँटों के पथ से भागी
हा¸ वह मेरी सुकुमारी॥28॥
तृण घास–पात का भोजन
रह गया वहीं पकता ही।
मैं झुरमुट के छिद्रों से
रह गया उसे तकता ही॥29॥
चलते–चलते थकने पर
बैठा तरू की छाया में।
क्षण भर ठहरा सुख आकर
मेरी जर्जर–काया में॥30॥
जल–हीन रो पड़ी रानी¸
बच्चों को तृषित रूलाकर।
कुश–कण्टक की शय्या पर
वह सोई उन्हें सुलाकर॥31॥
तब तक अरि के आने की
आहट कानों में आई।
बच्चों ने आँखें खोलीं
कह–कहकर माई–माई॥32॥
रव के भय से शिशु–मुख को
वल्कल से बाँध भगे हम।
गह्वर में छिपकर रोने
रानी के साथ लगे हम॥33॥
वह दिन न अभी भूला है¸
भूला न अभी गह्नर है।
सम्मुख दिखलाई देता
वह आँखों का झर–झर है॥34॥
जब सहन न होता¸ उठता
लेकर तलवार अकेला।
रानी कहती– न अभी है
संगर करने की बेला॥35॥
तब भी न तनिक रूकता तो
बच्चे रोने लगते हैं।
खाने को दो कह–कहकर
व्याकुल होने लगते हैं॥36॥
मेरे निबर्ल हाथों से
तलवार तुरत गिरती है।
इन आँखों की सरिता में
पुतली–मछली तिरती है॥37॥
हा¸ क्षुधा–तृषा से आकुल
मेरा यह दुबर्ल तन है।
इसको कहते जीवन क्या¸
यह ही जीवन जीवन है॥38॥
अब जननी के हित मुझको
मेवाड़ छोड़ना होगा।
कुछ दिन तक माँ से नाता
हा¸ विवश तोड़ना होगा॥39॥
अब दूर विजन में रहकर
राणा कुछ कर सकता है।
जिसकी गोदी में खेला¸
उसका ऋण भर सकता है॥40॥
यह कहकर उसने निशि में
अपना परिवार जगाया।
आँखों में आँसू भरकर
क्षण उनको गले लगाया॥41॥
बोला –"तुम लोग यहीं से
माँ का अभिवादन कर लो।
अपने–अपने अन्तर में
जननी की सेवा भर लो॥42॥
चल दो¸ क्षण देर करो मत¸
अब समय न है रोने को।
मेवाड़ न दे सकता है
तिल भर भी भू सोने को॥43॥
चल किसी विजन कोने में
अब शेष बिता दो जीवन।
इस दुखद भयावह ज्वर की
यह ही है दवा सजीवन।"॥44॥
सुन व्यथा–कथा रानी ने
आँचल का कोना धरकर¸
कर लिया मूक अभिवादन
आँखों में पानी भरकर॥45॥
हाँ¸ काँप उठा रानी के
तन–पट का धागा–धागा।
कुछ मौन–मौन जब माँ से
अंचल पसार कर माँगा॥46॥
बच्चों ने भी रो–रोकर
की विनय वन्दना माँ की।
पत्थर भी पिघल रहा था
वह देख–देखकर झाँकी॥47॥
राणा ने मुकुट नवाया
चलने की हुई तैयारी।
पत्नी शिशु लेकर आगे
पीछे पति वल्कल–धारी॥48॥
तत्काल किसी के पद का
खुर–खुर रव दिया सुनाई।
कुछ मिली मनुज की आहट¸
फिर जय–जय की ध्वनि आई॥49।
राणा की जय राणा की
जय–जय राणा की जय हो।
जय हो प्रताप की जय हो¸
राणा की सदा विजय हो॥50॥
वह ठहर गया रानी से
बोला – "मैं क्या हूँ सोता?
मैं स्वप्न देखता हूँ या
भ्रम से ही व्याकुल होता॥51॥
तुम भी सुनती या मैं ही
श्रुति–मधुर नाद सुनता हूँ।
जय–जय की मन्थर ध्वनि में
मैं मुक्तिवाद सुनता हूँ।"॥52॥
तब तक भामा ने फेंकी
अपने हाथों की लकुटी।
'मेरे शिशु्' कह राणा के
पैरों पर रख दी त्रिकुटी॥53॥
आँसू से पद को धोकर
धीमे–धीमे वह बोला –
"यह मेरी सेवा्" कहकर
थैलों के मुँह को खोला॥54॥
खन–खन–खन मणिमुद्रा की
मुक्ता की राशि लगा दी।
रत्नों की ध्वनि से बन की
नीरवता सकल भगा दी॥55॥
"एकत्र करो इस धन से
तुम सेना वेतन–भोगी।
तुम एक बार फिर जूझो
अब विजय तुम्हारी होगी॥56॥
कारागृह में बन्दी माँ
नित करती याद तुम्हें है।
तुम मुक्त करो जननी को
यह आशीर्वाद तुम्हें हैं।"॥57॥
वह निबर्ल वृद्ध तपस्वी
लग गया हाँफने कहकर।
गिर पड़ी लार अवनी पर¸
हा उसके मुख से बहकर॥58॥
वह कह न सका कुछ आगे¸
सब भूल गया आने पर।
कटि–जानु थामकर बैठा
वह भू पर थक जाने पर॥59॥
राणा ने गले लगाया
कायरता धो लेने पर।
फिर बिदा किया भामा को
घुल–घुल कर रो लेने पर॥60॥
खुल गये कमल–कोषों के
कारागृह के दरवाजे।
उससे बन्दी अलि निकले
सेंगर के बाजे–बाजे॥61॥
उषा ने राणा के सिर
सोने का ताज सजाया।
उठकर मेवाड़–विजय का
खग–कुल ने गाना गाया॥62॥
कोमल–कोमल पत्तों में
फूलों को हँसते देखा।
खिंच गई वीर के उर में
आशा की पतली रेखा॥63॥
उसको बल मिला हिमालय का¸
जननी–सेवा–अनुरक्ति मिली।
वर मिला उसे प्रलयंकर का¸
उसको चण्डी की शक्ति मिली॥64॥
सूरज का उसको तेज मिला¸
नाहर समान वह गरज उठा।
पर्वत पर झण्डा फइराकर
सावन–घन सा वह गरज उठा॥65॥
तलवार निकाली¸ चमकाई¸
अम्बर में फेरी घूम–घूम।
फिर रखी म्यान में चम–चम–चम¸
खरधार–दुधारी चूम–चूम॥66॥