"हल्दीघाटी / परिशिष्ट / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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+ | राणा! तू इसकी रक्षा कर | ||
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− | + | थरथरा रहा था अवनी–तल। | |
− | + | वह रत्नसिंह था रत्नसिंह¸ | |
− | + | जिसने कर दिया उसे शीतल॥4॥ | |
− | + | ||
− | + | मेवाड़–भूमि–बलिवेदी पर | |
− | + | होते बलि शिशु रनिवासों के। | |
− | + | गोरा–बादल–रण–कौशल से | |
− | + | उज्ज्वल पन्ने इतिहासों के॥5॥ | |
− | + | ||
− | + | जिसने जौहर को जन्म दिया | |
− | + | वह वीर पद्मिनी रानी है। | |
− | खिलजी–तलवारों के नीचे | + | राणा¸ तू इसकी रक्षा कर¸ |
− | थरथरा रहा था अवनी–तल। | + | यह सिंहासन अभिमानी है॥6॥ |
− | वह रत्नसिंह था रत्नसिंह¸ | + | |
− | जिसने कर दिया उसे | + | मूंजा के सिर के शोणित से |
− | मेवाड़–भूमि–बलिवेदी पर | + | जिसके भाले की प्यास बुझी। |
− | होते बलि शिशु रनिवासों के। | + | हम्मीर वीर वह था जिसकी |
− | गोरा–बादल–रण–कौशल से | + | असि वैरी–उर कर पार जुझी॥7॥ |
− | उज्ज्वल पन्ने इतिहासों | + | |
− | जिसने जौहर को जन्म दिया | + | प्रण किया वीरवर चूड़ा ने |
− | वह वीर | + | जननी–पद–सेवा करने का। |
− | राणा¸ तू इसकी रक्षा कर¸ | + | कुम्भा ने भी व्रत ठान लिया। |
− | यह सिंहासन अभिमानी | + | रत्नों से अंचल भरने का॥8॥ |
− | मूंजा के सिर के शोणित से | + | |
− | जिसके भाले की प्यास बुझी। | + | यह वीर–प्रसविनी वीर–भूमि¸ |
− | हम्मीर वीर वह था जिसकी | + | रजपूती की रजधानी है। |
− | असि वैरी–उर कर पार | + | राणा! तू इसकी रक्षा कर |
− | प्रण किया वीरवर चूड़ा ने | + | यह सिंहासन अभिमानी है॥9॥ |
− | जननी–पद–सेवा करने का। | + | |
− | कुम्भा ने भी व्रत ठान लिया। | + | जयमल ने जीवन–दान किया। |
− | रत्नों से अंचल भरने | + | पत्ता ने अर्पण प्रान किया। |
− | यह वीर–प्रसविनी वीर–भूमि¸ | + | कल्ला ने इसकी रक्षा में |
− | रजपूती की रजधानी है। | + | अपना सब कुछ कुबार्न किया॥10॥ |
− | राणा! तू इसकी रक्षा कर | + | |
− | यह सिंहासन अभिमानी | + | सांगा को अस्सी घाव लगे¸ |
− | जयमल ने जीवन–दान किया। | + | मरहमपट्टी थी आँखों पर। |
− | पत्ता ने अर्पण प्रान किया। | + | तो भी उसकी असि बिजली सी |
− | कल्ला ने इसकी रक्षा में | + | फिर गई छपाछप लाखों पर॥11॥ |
− | अपना सब कुछ कुबार्न | + | |
− | सांगा को अस्सी घाव लगे¸ | + | अब भी करूणा की करूण–कथा |
− | मरहमपट्टी थी | + | हम सबको याद जबानी है। |
− | तो भी उसकी असि बिजली सी | + | राणा! तू इसकी रक्षा कर |
− | फिर गई छपाछप लाखों | + | यह सिंहासन अभिमानी है॥12॥ |
− | अब भी करूणा की करूण–कथा | + | |
− | हम सबको याद जबानी है। | + | क्रीड़ा होती हथियारों से¸ |
− | राणा! तू इसकी रक्षा कर | + | होती थी केलि कटारों से। |
− | यह सिंहासन अभिमानी | + | असि–धार देखने को ऊँगली |
− | क्रीड़ा होती हथियारों से¸ | + | कट जाती थी तलवारों से॥13॥ |
− | होती थी केलि कटारों से। | + | |
− | असि–धार देखने को | + | हल्दी–घाटी का भैरव–पथ |
− | कट जाती थी तलवारों | + | रंग दिया गया था खूनों से। |
− | हल्दी–घाटी का | + | जननी–पद–अर्चन किया गया |
− | रंग दिया गया था खूनों से। | + | जीवन के विकच प्रसूनों से॥14॥ |
− | जननी–पद–अर्चन किया गया | + | |
− | जीवन के विकच प्रसूनों | + | अब तक उस भीषण घाटी के |
− | अब तक उस भीषण घाटी के | + | कण–कण की चढ़ी जवानी है! |
− | कण–कण की चढ़ी जवानी है! | + | राणा! तू इसकी रक्षा कर¸ |
− | राणा! तू इसकी रक्षा कर¸ | + | यह सिंहासन अभिमानी है॥15॥ |
− | यह सिंहासन अभिमानी | + | |
− | भीलों में रण–झंकार अभी¸ | + | भीलों में रण–झंकार अभी¸ |
− | लटकी कटि में तलवार अभी। | + | लटकी कटि में तलवार अभी। |
− | भोलेपन में ललकार अभी¸ | + | भोलेपन में ललकार अभी¸ |
− | + | आँखों में हैं अंगार अभी॥16॥ | |
− | गिरिवर के उन्नत–श्रृंगों पर | + | |
− | तरू के मेवे आहार बने। | + | गिरिवर के उन्नत–श्रृंगों पर |
− | इसकी रक्षा के लिए शिखर थे¸ | + | तरू के मेवे आहार बने। |
− | राणा के दरबार | + | इसकी रक्षा के लिए शिखर थे¸ |
− | जावरमाला के गह्वर में | + | राणा के दरबार बने॥17॥ |
− | अब भी तो निर्मल पानी है। | + | |
− | राणा! तू इसकी रक्षा कर¸ | + | जावरमाला के गह्वर में |
− | यह सिंहासन अभिमानी | + | अब भी तो निर्मल पानी है। |
− | + | राणा! तू इसकी रक्षा कर¸ | |
− | युवती के सिर की माला से। | + | यह सिंहासन अभिमानी है॥18॥ |
− | खलबली मचा दी मुगलों में¸ | + | |
− | अपने भीषणतम भाला | + | चूड़ावत ने तन भूषित कर |
− | घोड़े को गज पर चढ़ा दिया¸ | + | युवती के सिर की माला से। |
− | + | खलबली मचा दी मुगलों में¸ | |
− | फिर | + | अपने भीषणतम भाला से॥19॥ |
− | अवरंगजेब की हार | + | |
− | वह चारूमती रानी थी¸ | + | घोड़े को गज पर चढ़ा दिया¸ |
− | जिसकी चेरि बनी मुगलानी है। | + | 'मत मारो' मुगल–पुकार हुई। |
− | राणा! तू इसकी रक्षा कर¸ | + | फिर राजसिंह–चूड़ावत से |
− | यह सिंहासन अभिमानी | + | अवरंगजेब की हार हुई॥20॥ |
− | कुछ ही दिन बीते फतहसिंह | + | |
− | मेवाड़–देश का शासक था। | + | वह चारूमती रानी थी¸ |
− | वह राणा तेज उपासक था | + | जिसकी चेरि बनी मुगलानी है। |
− | तेजस्वी था अरि–नाशक | + | राणा! तू इसकी रक्षा कर¸ |
− | उसके चरणों को चूम लिया | + | यह सिंहासन अभिमानी है॥21॥ |
− | कर लिया समर्चन लाखों ने। | + | |
− | टकटकी लगा उसकी छवि को | + | कुछ ही दिन बीते फतहसिंह |
− | देखा कजन की | + | मेवाड़–देश का शासक था। |
− | सुनता हूं उस मरदाने की | + | वह राणा तेज उपासक था |
− | दिल्ली की अजब कहानी है। | + | तेजस्वी था अरि–नाशक था॥22॥ |
− | राणा! तू इसकी रक्षा कर¸ | + | |
− | यह सिंहासन अभिमानी | + | उसके चरणों को चूम लिया |
− | तुझमें | + | कर लिया समर्चन लाखों ने। |
− | बापा–कुल का अनुराग भरा। | + | टकटकी लगा उसकी छवि को |
− | राणा–प्रताप सा रग–रग में | + | देखा कजन की आँखों ने॥23॥ |
− | जननी–सेवा का राग | + | |
− | अगणित–उर–शोणित से सिंचित | + | सुनता हूं उस मरदाने की |
− | इस सिंहासन का स्वामी है। | + | दिल्ली की अजब कहानी है। |
− | भूपालों का भूपाल अभय | + | राणा! तू इसकी रक्षा कर¸ |
− | राणा–पथ का तू गामी | + | यह सिंहासन अभिमानी है॥24॥ |
− | दुनिया कुछ कहती है सुन ले¸ | + | |
− | यह दुनिया तो दीवानी है। | + | तुझमें चूड़ा सा त्याग भरा¸ |
− | राणा! तू इसकी रक्षा कर¸ | + | बापा–कुल का अनुराग भरा। |
− | यह सिंहासन अभिमानी | + | राणा–प्रताप सा रग–रग में |
+ | जननी–सेवा का राग भरा॥25॥ | ||
+ | |||
+ | अगणित–उर–शोणित से सिंचित | ||
+ | इस सिंहासन का स्वामी है। | ||
+ | भूपालों का भूपाल अभय | ||
+ | राणा–पथ का तू गामी है॥26॥ | ||
+ | |||
+ | दुनिया कुछ कहती है सुन ले¸ | ||
+ | यह दुनिया तो दीवानी है। | ||
+ | राणा! तू इसकी रक्षा कर¸ | ||
+ | यह सिंहासन अभिमानी है॥27॥ | ||
+ | </poem> |
04:24, 13 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
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परिशिष्ट
यह एकलिंग का आसन है¸
इस पर न किसी का शासन है।
नित सिहक रहा कमलासन है¸
यह सिंहासन सिंहासन है॥1॥
यह सम्मानित अधिराजों से¸
अर्चित है¸ राज–समाजों से।
इसके पद–रज पोंछे जाते
भूपों के सिर के ताजों से॥2॥
इसकी रक्षा के लिए हुई
कुबार्नी पर कुबार्नी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर
यह सिंहासन अभिमानी है॥3॥
खिलजी–तलवारों के नीचे
थरथरा रहा था अवनी–तल।
वह रत्नसिंह था रत्नसिंह¸
जिसने कर दिया उसे शीतल॥4॥
मेवाड़–भूमि–बलिवेदी पर
होते बलि शिशु रनिवासों के।
गोरा–बादल–रण–कौशल से
उज्ज्वल पन्ने इतिहासों के॥5॥
जिसने जौहर को जन्म दिया
वह वीर पद्मिनी रानी है।
राणा¸ तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है॥6॥
मूंजा के सिर के शोणित से
जिसके भाले की प्यास बुझी।
हम्मीर वीर वह था जिसकी
असि वैरी–उर कर पार जुझी॥7॥
प्रण किया वीरवर चूड़ा ने
जननी–पद–सेवा करने का।
कुम्भा ने भी व्रत ठान लिया।
रत्नों से अंचल भरने का॥8॥
यह वीर–प्रसविनी वीर–भूमि¸
रजपूती की रजधानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर
यह सिंहासन अभिमानी है॥9॥
जयमल ने जीवन–दान किया।
पत्ता ने अर्पण प्रान किया।
कल्ला ने इसकी रक्षा में
अपना सब कुछ कुबार्न किया॥10॥
सांगा को अस्सी घाव लगे¸
मरहमपट्टी थी आँखों पर।
तो भी उसकी असि बिजली सी
फिर गई छपाछप लाखों पर॥11॥
अब भी करूणा की करूण–कथा
हम सबको याद जबानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर
यह सिंहासन अभिमानी है॥12॥
क्रीड़ा होती हथियारों से¸
होती थी केलि कटारों से।
असि–धार देखने को ऊँगली
कट जाती थी तलवारों से॥13॥
हल्दी–घाटी का भैरव–पथ
रंग दिया गया था खूनों से।
जननी–पद–अर्चन किया गया
जीवन के विकच प्रसूनों से॥14॥
अब तक उस भीषण घाटी के
कण–कण की चढ़ी जवानी है!
राणा! तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है॥15॥
भीलों में रण–झंकार अभी¸
लटकी कटि में तलवार अभी।
भोलेपन में ललकार अभी¸
आँखों में हैं अंगार अभी॥16॥
गिरिवर के उन्नत–श्रृंगों पर
तरू के मेवे आहार बने।
इसकी रक्षा के लिए शिखर थे¸
राणा के दरबार बने॥17॥
जावरमाला के गह्वर में
अब भी तो निर्मल पानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है॥18॥
चूड़ावत ने तन भूषित कर
युवती के सिर की माला से।
खलबली मचा दी मुगलों में¸
अपने भीषणतम भाला से॥19॥
घोड़े को गज पर चढ़ा दिया¸
'मत मारो' मुगल–पुकार हुई।
फिर राजसिंह–चूड़ावत से
अवरंगजेब की हार हुई॥20॥
वह चारूमती रानी थी¸
जिसकी चेरि बनी मुगलानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है॥21॥
कुछ ही दिन बीते फतहसिंह
मेवाड़–देश का शासक था।
वह राणा तेज उपासक था
तेजस्वी था अरि–नाशक था॥22॥
उसके चरणों को चूम लिया
कर लिया समर्चन लाखों ने।
टकटकी लगा उसकी छवि को
देखा कजन की आँखों ने॥23॥
सुनता हूं उस मरदाने की
दिल्ली की अजब कहानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है॥24॥
तुझमें चूड़ा सा त्याग भरा¸
बापा–कुल का अनुराग भरा।
राणा–प्रताप सा रग–रग में
जननी–सेवा का राग भरा॥25॥
अगणित–उर–शोणित से सिंचित
इस सिंहासन का स्वामी है।
भूपालों का भूपाल अभय
राणा–पथ का तू गामी है॥26॥
दुनिया कुछ कहती है सुन ले¸
यह दुनिया तो दीवानी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर¸
यह सिंहासन अभिमानी है॥27॥