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"हक़ था तुम्हारा / रवीन्द्र दास" के अवतरणों में अंतर

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हक़ था तुम्हारा  
 
हक़ था तुम्हारा  
 
 
जिसे तुम मांगते रहे थे दयनीय बनकर  
 
जिसे तुम मांगते रहे थे दयनीय बनकर  
 
 
कि कर दे कोई कृपा  
 
कि कर दे कोई कृपा  
 
 
और मैंने  
 
और मैंने  
 
 
अपने कमीनेपन का सबूत देता रहा बार-बार।  
 
अपने कमीनेपन का सबूत देता रहा बार-बार।  
 
 
कारण और कोई नहीं था  
 
कारण और कोई नहीं था  
 
 
बस इतना कि मैं पुरूष था  
 
बस इतना कि मैं पुरूष था  
 
 
और तुम थे औरत  
 
और तुम थे औरत  
 
 
जिसे सिखाया गया था  
 
जिसे सिखाया गया था  
 
 
जाने-अनजाने  
 
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ऐसे ही जीना, और हम जीते ही जा रहे थे लगातार  
ऐसे ही जीना , और हम जीते ही जा रहे थे लगातार  
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और बेहिचक।  
 
और बेहिचक।  
 
 
नहीं दुखता था मेरा मन तुम्हें रौंद कर  
 
नहीं दुखता था मेरा मन तुम्हें रौंद कर  
 
 
ऐसी बात नहीं थी  
 
ऐसी बात नहीं थी  
 
 
लेकिन सदियों-सहस्राब्दियों के संस्कारों से लिथड़ा मैं  
 
लेकिन सदियों-सहस्राब्दियों के संस्कारों से लिथड़ा मैं  
 
 
अपने बदबूदार परिवेश में घुटकर भी  
 
अपने बदबूदार परिवेश में घुटकर भी  
 
 
न जाने क्यों  
 
न जाने क्यों  
 
 
कभी कोशिश नहीं की जागने की  
 
कभी कोशिश नहीं की जागने की  
 
 
नहीं दे पाया आवाज़ अपनी ही जमीर को  
 
नहीं दे पाया आवाज़ अपनी ही जमीर को  
 
 
बना रहा बनैला पशु  
 
बना रहा बनैला पशु  
 
 
कहते हुए पुरुषार्थ उसे  
 
कहते हुए पुरुषार्थ उसे  
 
 
तुम नहीं थे मेरे अनुचर,  
 
तुम नहीं थे मेरे अनुचर,  
 
 
बल्कि थे सहचर  
 
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लेकिन अब,  
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जबकि समय झुंझला रहा है  
 
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मैं तरस रहा हूँ  
 
मैं तरस रहा हूँ  
 
 
तुम मुझे करो माफ़  
 
तुम मुझे करो माफ़  
 
 
मत बिखरने दो परिवार को  
 
मत बिखरने दो परिवार को  
 
 
यही है सनातन सुरक्षा का एकमात्र आश्रय  
 
यही है सनातन सुरक्षा का एकमात्र आश्रय  
 
 
इन्सान ने जानवरों से बेहतर किया ही क्या ?  
 
इन्सान ने जानवरों से बेहतर किया ही क्या ?  
 
 
सिवा परिवार बसाने के  
 
सिवा परिवार बसाने के  
 
 
रहम करो इंसानियत पर  
 
रहम करो इंसानियत पर  
 
 
और बचा लो परिवार को  
 
और बचा लो परिवार को  
 
 
वरना जंगल-राज फैल जाएगा चतुर्दिक  
 
वरना जंगल-राज फैल जाएगा चतुर्दिक  
 
 
घर हो जाएगा बाज़ार  
 
घर हो जाएगा बाज़ार  
 
 
दुहराता हूँ मैं फिर से सरेआम  
 
दुहराता हूँ मैं फिर से सरेआम  
 
 
हक़ था तुम्हारा  
 
हक़ था तुम्हारा  
 
 
जिसके लिए तुम्हें सहना पड़ा इतना कुछ।
 
जिसके लिए तुम्हें सहना पड़ा इतना कुछ।
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09:31, 16 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण

हक़ था तुम्हारा
जिसे तुम मांगते रहे थे दयनीय बनकर
कि कर दे कोई कृपा
और मैंने
अपने कमीनेपन का सबूत देता रहा बार-बार।
कारण और कोई नहीं था
बस इतना कि मैं पुरूष था
और तुम थे औरत
जिसे सिखाया गया था
जाने-अनजाने
ऐसे ही जीना, और हम जीते ही जा रहे थे लगातार
और बेहिचक।
नहीं दुखता था मेरा मन तुम्हें रौंद कर
ऐसी बात नहीं थी
लेकिन सदियों-सहस्राब्दियों के संस्कारों से लिथड़ा मैं
अपने बदबूदार परिवेश में घुटकर भी
न जाने क्यों
कभी कोशिश नहीं की जागने की
नहीं दे पाया आवाज़ अपनी ही जमीर को
बना रहा बनैला पशु
कहते हुए पुरुषार्थ उसे
तुम नहीं थे मेरे अनुचर,
बल्कि थे सहचर
लेकिन अब,
जबकि समय झुंझला रहा है
मैं तरस रहा हूँ
तुम मुझे करो माफ़
मत बिखरने दो परिवार को
यही है सनातन सुरक्षा का एकमात्र आश्रय
इन्सान ने जानवरों से बेहतर किया ही क्या ?
सिवा परिवार बसाने के
रहम करो इंसानियत पर
और बचा लो परिवार को
वरना जंगल-राज फैल जाएगा चतुर्दिक
घर हो जाएगा बाज़ार
दुहराता हूँ मैं फिर से सरेआम
हक़ था तुम्हारा
जिसके लिए तुम्हें सहना पड़ा इतना कुछ।