भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मेले में / एकांत श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: मेले में<br /> एकाएक उठती है रूलाई की इच्‍छा<br /> जब भीड़ एक दुकान से दू…)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
मेले में<br />
+
{{KKGlobal}}
एकाएक उठती है रूलाई की इच्‍छा<br />
+
{{KKRachna
जब भीड़ एक दुकान से दूसरी दुकान<br />
+
|रचनाकार=एकांत श्रीवास्तव
एक चीज से दूसरी चीज<br />
+
|संग्रह=
और एक सर्कस से दूसरे तमाशे पर<br />
+
}}
टूट रही होती है<br />
+
{{KKCatKavita‎}}
<br />
+
<Poem>
एक धूल की दीवार के उस पार<br />
+
मेले में
साफ-साफ दिखता है<br />
+
एकाएक उठती है रूलाई की इच्‍छा
पन्‍द्रह बरस पहले का घर और मॉं<br />
+
जब भीड़ एक दुकान से दूसरी दुकान
<br />
+
एक चीज़ से दूसरी चीज़
आज भी रखी है पन्‍द्रह बरस बाद<br />
+
और एक सर्कस से दूसरे तमाशे पर
गुड़ और रोटी के साथ सहेजी हुई<br />
+
टूट रही होती है
मॉं की आवाज जो भीड़ में<br />
+
 
उंगली पकड़कर चलने को कहती है<br />
+
एक धूल की दीवार के उस पार
<br />
+
साफ़-साफ़ दिखता है
न मैं भटका न खोया<br />
+
पन्‍द्रह बरस पहले का घर और माँ
<br />
+
 
अगर कुछ खोया तो बस एक घर<br />
+
आज भी रखी है पन्‍द्रह बरस बाद
इस मेले में<br />
+
गुड़ और रोटी के साथ सहेजी हुई
जिसे मैं आज तक ढूंढ नहीं पाया.<br />
+
मॉं की आवाज जो भीड़ में
<br />
+
उंगली पकड़कर चलने को कहती है
 +
 
 +
न मैं भटका न खोया
 +
 
 +
अगर कुछ खोया तो बस एक घर
 +
इस मेले मे
 +
जिसे मैं आज तक ढूंढ नहीं पाया।
 +
</poem>

19:15, 28 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण

मेले में
एकाएक उठती है रूलाई की इच्‍छा
जब भीड़ एक दुकान से दूसरी दुकान
एक चीज़ से दूसरी चीज़
और एक सर्कस से दूसरे तमाशे पर
टूट रही होती है

एक धूल की दीवार के उस पार
साफ़-साफ़ दिखता है
पन्‍द्रह बरस पहले का घर और माँ

आज भी रखी है पन्‍द्रह बरस बाद
गुड़ और रोटी के साथ सहेजी हुई
मॉं की आवाज जो भीड़ में
उंगली पकड़कर चलने को कहती है

न मैं भटका न खोया

अगर कुछ खोया तो बस एक घर
इस मेले मे
जिसे मैं आज तक ढूंढ नहीं पाया।