भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"झर गई कली / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत |संग्रह= गुंजन / सुमित्रानंदन …) |
छो ("झर गई कली / सुमित्रानंदन पंत" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite))) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
<poem> | <poem> | ||
:झर गई कली, झर गई कली! | :झर गई कली, झर गई कली! | ||
+ | |||
चल-सरित-पुलिन पर वह विकसी, | चल-सरित-पुलिन पर वह विकसी, | ||
उर के सौरभ से सहज-बसी, | उर के सौरभ से सहज-बसी, | ||
सरला प्रातः ही तो विहँसी, | सरला प्रातः ही तो विहँसी, | ||
− | रे कूद सलिल में गई चली! | + | :रे कूद सलिल में गई चली! |
आई लहरी चुम्बन करने, | आई लहरी चुम्बन करने, |
11:29, 13 मई 2010 के समय का अवतरण
झर गई कली, झर गई कली!
चल-सरित-पुलिन पर वह विकसी,
उर के सौरभ से सहज-बसी,
सरला प्रातः ही तो विहँसी,
रे कूद सलिल में गई चली!
आई लहरी चुम्बन करने,
अधरों पर मधुर अधर धरने,
फेनिल मोती से मुँह भरने,
वह चंचल-सुख से गई छली!
आती ही जाती नित लहरी,
कब पास कौन किसके ठहरी?
कितनी ही तो कलियाँ फहरीं,
सब खेलीं, हिलीं, रहीं सँभली!
निज वृन्त पर उसे खिलना था,
नव नव लहरों से मिलना था,
निज सुख-दुख सहज बदलना था,
रे गेह छोड़ वह बह निकली!
है लेन देन ही जग-जीवन,
अपना पर सब का अपनापन,
खो निज आत्मा का अक्षय-धन
लहरों में भ्रमित, गई निगली!
रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२