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"उम्मीद का आम्रतरु / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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इतनी उपजाऊ है कि | इतनी उपजाऊ है कि | ||
लहलहाई जा सकती है इस पर | लहलहाई जा सकती है इस पर | ||
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उम्मीद को पाल-पोसकर | उम्मीद को पाल-पोसकर | ||
− | झकड़दार -फलदार बनाने में | + | झकड़दार-फलदार बनाने में |
भोथरा जाती है उम्र की धार, | भोथरा जाती है उम्र की धार, | ||
बंद मुट्ठी की रेत हो जाती है | बंद मुट्ठी की रेत हो जाती है | ||
इस पर चढ़कर | इस पर चढ़कर | ||
− | + | फलों को तोड़ने की क्षमता | |
− | बहुत प्राय: | + | बहुत प्राय: |
+ | अनपके ही रह गए फलों को | ||
मार जाता है विनाश का पाला, | मार जाता है विनाश का पाला, | ||
स्वत: ही सूखकर | स्वत: ही सूखकर | ||
निष्पात-निष्फल हो जाती है यह, | निष्पात-निष्फल हो जाती है यह, | ||
− | इच्छाओं के मानसून बरसते रह जाते हैं | + | इच्छाओं के मानसून |
+ | बरसते रह जाते हैं | ||
जबकि पतझड़ इसे | जबकि पतझड़ इसे | ||
− | घसीटकर ले जाता है | + | घसीटकर ले जाता है-- |
विषाद के मरुस्थल में | विषाद के मरुस्थल में | ||
इसकी चिता सजाने | इसकी चिता सजाने | ||
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खाने की भूख लरजती ही रहेगी, | खाने की भूख लरजती ही रहेगी, | ||
कौन मानेगा मेरा कहा कि | कौन मानेगा मेरा कहा कि | ||
− | बाज आ जाओ इसकी छाया में जीने से | + | बाज आ जाओ-- |
+ | इसकी छाया में जीने से | ||
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16:39, 3 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण
उम्मीद का आम्रतरु
हर किसी की मन-मृत्तिका
इतनी उपजाऊ है कि
लहलहाई जा सकती है इस पर
उम्मीद तरुओं की फसल
उम्मीद को पाल-पोसकर
झकड़दार-फलदार बनाने में
भोथरा जाती है उम्र की धार,
बंद मुट्ठी की रेत हो जाती है
इस पर चढ़कर
फलों को तोड़ने की क्षमता
बहुत प्राय:
अनपके ही रह गए फलों को
मार जाता है विनाश का पाला,
स्वत: ही सूखकर
निष्पात-निष्फल हो जाती है यह,
इच्छाओं के मानसून
बरसते रह जाते हैं
जबकि पतझड़ इसे
घसीटकर ले जाता है--
विषाद के मरुस्थल में
इसकी चिता सजाने
उम्मीद पालने की कुव्वत
कभी शून्य नहीं होती,
इसके अनचखे फलों को
खाने की भूख लरजती ही रहेगी,
कौन मानेगा मेरा कहा कि
बाज आ जाओ--
इसकी छाया में जीने से