भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"हाइकु / कमलेश भट्ट 'कमल'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 9 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=कमलेश भट्ट 'कमल' | |रचनाकार=कमलेश भट्ट 'कमल' | ||
+ | |संग्रह=हाइकू 2009 / गोपालदास "नीरज" | ||
}} | }} | ||
− | + | [[Category:हाइकु]] | |
+ | [[Category:हाइकु]] | ||
<poem> | <poem> | ||
− | |||
− | |||
− | |||
− | + | कौन मानेगा | |
− | + | सबसे कठिन है | |
− | + | सरल होना। | |
− | + | प्रीति, हाँ प्रीति | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
दुनिया में सुख की | दुनिया में सुख की | ||
− | एक ही | + | एक ही रीति । |
आप से मिले | आप से मिले | ||
तो लगा क्या मिलना | तो लगा क्या मिलना | ||
− | किसी और से | + | किसी और से ! |
− | + | ढूँढ़ता रहा | |
खुद को दिन रात | खुद को दिन रात | ||
− | + | ढूँढ़ न पाया ! | |
पंक्ति 62: | पंक्ति 41: | ||
रिश्तों से ज्यादा | रिश्तों से ज्यादा | ||
तनाव बसते है | तनाव बसते है | ||
− | घरों में अब | + | घरों में अब ! |
− | + | ||
− | युग- | + | युग-युगों से |
सोए पड़े पहाड़ | सोए पड़े पहाड़ | ||
− | जागेंगे कब? | + | जागेंगे कब ? |
− | + | गाँवों से लाता | |
शुद्ध आक्सीजन भी | शुद्ध आक्सीजन भी | ||
वश न चला । | वश न चला । | ||
पंक्ति 77: | पंक्ति 55: | ||
भीड़ तो बढ़ी | भीड़ तो बढ़ी | ||
− | विरल हो चले | + | विरल हो चले हैं |
रिश्ते परंतु । | रिश्ते परंतु । | ||
पंक्ति 84: | पंक्ति 62: | ||
रात होते ही | रात होते ही | ||
गोलबन्द हो गये | गोलबन्द हो गये | ||
− | चाँद सितारे । | + | चाँद-सितारे । |
घिर गया है | घिर गया है | ||
विषैली लताओं से | विषैली लताओं से | ||
− | जीवन वृक्ष । | + | जीवन- वृक्ष । |
10:56, 13 अक्टूबर 2019 के समय का अवतरण
कौन मानेगा
सबसे कठिन है
सरल होना।
प्रीति, हाँ प्रीति
दुनिया में सुख की
एक ही रीति ।
आप से मिले
तो लगा क्या मिलना
किसी और से !
ढूँढ़ता रहा
खुद को दिन रात
ढूँढ़ न पाया !
छोटा कर दे
रातों की लम्बाई भी
गहरी नींद ।
छीन ही लिया
नदी का नदीपन
प्यासे बाँधों ने ।
रिश्तों से ज्यादा
तनाव बसते है
घरों में अब !
युग-युगों से
सोए पड़े पहाड़
जागेंगे कब ?
गाँवों से लाता
शुद्ध आक्सीजन भी
वश न चला ।
भीड़ तो बढ़ी
विरल हो चले हैं
रिश्ते परंतु ।
रात होते ही
गोलबन्द हो गये
चाँद-सितारे ।
घिर गया है
विषैली लताओं से
जीवन- वृक्ष ।
बुझते हुए
पल भर को सही
लड़ी थी लौ भी ।
मैं नहीं हूँ मैं
तुम भी कहाँ तुम
सब मुखौटॆ ।