Changes

क्रुद्ध वासुकि के दशन को तोड़कर भी.
. . .
होती गयी रजनी गहन से गहनतर,
निज रूप की पहचान भी जाती रही,
चिरकाल से पिंजर-विवश मृगराज को
गिरि-श्रृंग का उन्मुक्त गर्जन भी गया हो भूल ज्यों.
संतान ऋषियों की जिन्हें कहते रहे
सुरलोक के जेता अमर मनु-पुत्र वे
श्रीहीन अश्वों-से विवश
दासत्व के रथ में जुटे
मणि-पाश करते थे प्रदर्शित चाव से.
ऐसे तमोमय क्षितिज पर
उतरी किरण-सी भानु की,
इस देश की संचित तपस्या ही हुई साकार ज्यों,
सशरीर जैसे सत्य हो;
फिर पोरबंदर में हुआ अवतरण अभिनव ज्योति का
जिसको सहज ही देवताओं की मिली
श्री, सिद्धि, शक्ति, विभूति, धी,
आयुध नये ही प्रेम के.
यों पुण्यफल-सी वृद्ध भारत-भूमि के
छवि दिव्य मोहन की हुई थी प्रस्फुटित.
<poem>
2,913
edits